CTET HINDI QUIZ 54

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Question 1:

निर्देश - निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:

जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार

तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।

हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।

इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं।

कौन-सा विशेषण गोपालदास 'नीरज' के लिए उपयुक्‍त नहीं है?

निर्देश- निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:
जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार
तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।
हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजलाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।
इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं।

Question 2:

निर्देश - निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:

जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार

तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।

हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।

इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं।

'घृणास्पद' का संधि-विच्‍छेद होगा -

निर्देश- निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:
जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार
तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।
हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजलाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।
इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं। लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 3:

निर्देश - निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:

जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार

तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।

हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।

इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं।

यदि कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो...' की कर्मवाच्‍य में रचना होगी-

निर्देश- निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:
जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार
तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।
हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजलाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।
इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं। लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 4:

निर्देश - निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:

जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार

तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।

हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।

इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं।

प्रत्‍यय की दृष्टि से उस शब्‍द को पहचाहनए जो शेष शब्‍दों से भिन्‍न हो।

निर्देश- निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:
जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार
तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।
हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजलाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।
इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं। लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 5:

निर्देश - निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:

जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार

तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।

हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।

इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं।

हम जैसा करते है वैसा पाते हैं' - यह समझाने के लिए लेखक ने किसका उदाहरण दिया है?

निर्देश- निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


सुप्रसिद्ध गीतकारगोपालदास 'नीरज' ने अपनी एक रचना में कहा है:
जैसा हो आघात रे वैसा बजे सितार
तेरी ही आवाज की प्रतिध्‍वनि है संसार।
हम वाद्ययंत्रों पर जैसा आघात करते हैं वैसी ही ध्‍वनि उनसे निकलती है। यदि कठोरता से आघात करते हैं तो कठोर ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है, लेकिन यदि कोमलता से आघात करते हैं तो कर्णप्रिय कोमल ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है। यदि हम किसी वाद्ययंत्र को नियमपूर्वक ठीक से बजलाते हैं तो सही राग उत्‍पन्‍न होता है, अन्‍यथा सही राग उत्‍पन्‍न होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। सही राग उत्‍पन्‍न न होने की स्थिति में गुणीजन हमारे गायन अथवा वादन की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे। हमारे जीवन रूपी सितार की भी यही स्थिति होती है। यदि हम अनुशासन में रहते हुए प्रत्‍येक कार्य नियमानुसार करते हैं तो जीवन रूपी सितार से उत्‍पन्‍न होने वाला प्रत्‍येक राग रूपी कार्य हमें सार्थकता और आनंद ही प्रदान करेगा।
इस संसार में हम जो कुछ सोचते, कहते अथवा करते हैं वही हमारे पास लौटकर आता है। न कम, न अधिक। जब हम किसी खंडहर अथवा वादी में कोई अच्‍छा शब्‍द या वाक्य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही अच्‍छा शब्‍द या वाक्य गूँजता हुआ हमें सुनाई पड़ता है और यदि हम कोई बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य बोलते हैं तो कुछ देर बाद वही बुरा, अपमानजनक अथवा घृणास्‍पद शब्‍द या वाक्‍य हमें सुनाई पड़ता है। यदि हम सुरीली आवाज निकालते हैं तो वैसी ही सुरीली आवाज लौटकर हमारे पास आती है, लेकिन यदि हम डरावनी आवाज निकालते हैं तो वैसी ही डरावनी आवाज लौटकर आती है। हम जैसा एक बार बोलते हैं अनुभव करते हुए भी इसका आशय हम समझते नहीं। चूँकी आवाज के लौटकर आने में थोड़ा वक्‍त लगता है, इसलिए हम उसे स्‍वतंत्र घटना मान लेते हैं। यह अहसास नहीं कर पाते कि हमारे ही किए हुए काज, हमारे ही सोचे हुए भाव अलग दिशा से हमारे पास आते दिख रहे हैं। लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 6:

निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धदंतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवोंकी स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे  जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवोंके संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मका अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होन पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

शरीर को 'नश्‍वर' कहा जाता है, क्‍योंकि वह

निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धदंतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवोंकी स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे  जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवोंके संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मका अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होन पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 7:

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हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयं के प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शांतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। त्याग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके लिए मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

रचना की दृष्टि से शेष से भिन्‍न शब्‍द को अलग कीजिए:

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हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शांतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे  जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। त्‍याग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके लिए मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 8:

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हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयं के प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शांतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। त्याग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके लिए मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

आध्‍यात्मिक' शब्‍द का निर्माण किस उपसर्ग की सहायता से हुआ है?

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हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शांतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे  जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। त्‍याग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके लिए मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 9:

निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयं के प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शांतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। त्याग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके लिए मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस' होना होगा। रेखांकित शब्‍द का अर्थ है-

निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शांतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे  जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। त्‍याग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके लिए मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 10:

निम्‍नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयं के प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शांतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। त्याग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके लिए मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

जीवन का श्रेष्‍ठ उद्देश्‍य किसे बताया गया है?

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हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे। 

हमें स्थिरता से और शांतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे  जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। त्‍याग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके लिए मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान,तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।