CTET HINDI QUIZ 69

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Question 1:

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।


$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।

व्यक्ति का पर्यायवाची शब्द है :

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$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।

$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।

Question 2:

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$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।


$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।

"गर्भाधान" में कौन-सी संधि है?

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$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।

$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।

Question 3:

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$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।


$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।

प्राचीन काल में विद्या का आरंभ किस संस्कार से होता था उसके बारे में वर्णन किस ग्रंथ में मिलता है?

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$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।

$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।

Question 4:

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$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।


$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।

प्राचीन काल में विद्यार्थियों के कर्तव्य निम्नलिखित में से कौन से थे?

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$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।

$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।

Question 5:

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।

$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।
प्रस्तुत पद्यांश का सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक निम्नलिखित में से कौन सा हो सकता है?
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$\quad$$\quad$$\quad$प्राचीन भारत में शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता था, व्यक्ति के जीवन को संतुलित और श्रेष्ठ बनाने तथा एक नई दिशा प्रदान करने में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था, सामाजिक बुराइयों को उसकी जड़ों से निर्मूल करने और त्रुटिपूर्ण जीवन में सुधार करने के लिए शिक्षा की नितांत आवश्यकता थी, यही एक ऐसी व्यवस्था थी जिसके द्वारा संपूर्ण जीवन ही परिवर्तित किया जा सकता था। व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व का विकास करने वास्तविकता ज्ञान को प्राप्त करने और अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए शिक्षा पर निर्भर होना पड़ता था। जीवन की वास्तविकता को समझने में शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहता है, विद्या का स्थान किसी भी वस्तु से बहुत ऊंचा बताया गया, प्रखर बुद्धि एवं सही विवेक के लिए शिक्षा की उपयोगिता को स्वीकार किया गया, शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आत्मिक अर्थात सर्वागीण विकास संभव है शिक्षा ने हीं प्राचीन संस्कृति को संरक्षण दिया और इसके प्रसार में मदद की।

$\quad$$\quad$$\quad$विद्या का आरंभ उपनयन संस्कार द्वारा होता था, उपनयन संस्कार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि, गर्भाधान संस्कार द्वारा तो व्यक्ति का शरीर उत्पन्न होता है पर उपनयन संस्कार द्वारा उसका आध्यात्मिक जन्म होता है। प्राचीन काल में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए आचार्य के पास भेजा जाता था, इस अवस्था में बालक जो ज्ञानार्जन करता था उसका लाभ उसको जीवन भर मिलता था। गुरु ग्रह में निवास करते हुए विद्यार्थी समाज के निकट संपर्क में आता था, गुरु के लिए समिधा जल का लाना तथा गृह कार्य करना उसका कर्तव्य माना जाता था, गृहस्थ धर्म की शिक्षा के साथ-साथ वह श्रम और सेवा का पाठ पढ़ता था शिक्षा केवल सैद्धांतिक और पुस्तके ना होकर जीवन की वास्तविकता के निकट होती थी।

Question 6:

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतो , अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयं के प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍यागयोग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

'आध्‍यात्मिक' शब्‍द का निर्माण किस उपसर्ग की सहायता से हुआ है?

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धदंतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवोंकी स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवोंके संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मका अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होन पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 7:

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतो , अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयं के प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍यागयोग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

'आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस' होना होगा। रेखांकित शब्‍द का अर्थ है-

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धदंतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवोंकी स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवोंके संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मका अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होन पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 8:

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतो, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयं के प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍यागयोग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।



त्‍याग के योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए आवश्‍यक है :

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धदंतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवोंकी स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवोंके संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मका अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होन पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 9:

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतो , अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयं के प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍यागयोग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।


जीवन का श्रेष्‍ठ उद्देश्‍य किसे बताया गया है?

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$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धदंतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवोंकी स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवोंके संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मका अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होन पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

Question 10:

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:


$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धांतो ,अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयं के प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवों की स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍यागयोग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मकता अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होने पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।

लोग हमें तभी याद रखेंगे जब हम-

निर्देश - नीचे दिये गये गद्यांश को पढ़कर पूछे गये प्रश्न के सबसे उपयुक्त वाले विकल्प चुनिए:

$\quad$$\quad$$\quad$हमारा जीवन जिन मानवीय सिद्धदंतों, अनुभवों और सांस्‍कृतिक संस्‍कारों के संबल से समस्‍त सृष्टि के लिए महत्‍वपूर्ण बना है, परोपकार की भावना उन्‍हीं में एक है। मानव को दूसरे मानव के प्रति वैसा ही संवेदनात्‍मक उत्‍तरदायित्‍व निभाना चाहिए, जैसे वह स्‍वयंके प्रति निभाता है। जीवन को केवल परोपकार, पर सेवा और नि:स्‍वार्थ प्रेम के लिए ही वास्‍तविक समझना चाहिए क्‍योंकि नश्‍वर शरीर जब नष्‍ट हो जाएगा तो उसके बाद हमारा कुछ भी इस दुनिया के जीवों की स्‍मृति में नहीं रहेगा। हम जग जीवोंकी स्‍मृति में सदा-सदा के लिए तभी बने रह सकते हैं, जब हम अपने नश्‍वर शरीर को वैचारिक, बौद्धिक और आत्मिक चेतना से पूर्ण कर नि:स्‍वार्थ भाव से स्‍वयं को जीव सेवा में समर्पित करेंगे।

$\quad$$\quad$$\quad$हमें स्थिरता से और शंतिपूर्वक यह विचार करते रहना चाहिए कि हमारे जीवन का सर्वश्रेष्‍ट उद्देश्‍य और एकमात्र लक्ष्‍य हमारे द्वारा किया जाने वाला त्‍याग है। त्‍याग योग्‍य व्‍यक्तित्‍व प्राप्‍त करने के लिए गहन तप की आवश्‍यकता है। तयाग का भाव किसी मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवोंके संबंध में असाधारण होते हुए नहीं जन्‍म लेता। इसके मनुष्‍य को जीवन-जगत और इसके जीवों के संबंध में असाधारण वैचारिक रचनात्‍मका अपनाकर निरंतर योग, ध्‍यान, तप व साधना करनी होगी। उसे इस स्थिति से विचरते हुए विशिष्‍ट आध्‍यात्मिक अनुभवों से लैस होना होगा। आवश्‍यकता होन पर उसे जीवों की वास्‍तविक सेवा करनी होगी। जब ऐसी विशेष मानवीय परिस्थितियाँ उत्‍पन्‍न होंगी, तब ही मानव में त्‍याग भाव आकार ग्रहण करेगा।