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निम्नलिखित अवतरण को ध्यानपूर्वक पढ़कर प्रश्न का सही विकल्प चुनकर उत्तर दीजिए।
धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे अधिक बाधा चित्त की चंचलता, उद्देश्य की अस्थिरता और मन की निर्बलता से पड़ती है। मनुष्य के कर्तव्य मार्ग में एक ओर तो आत्मा के बुरे-भले कामों का ज्ञान दूसरी ओर आलस्य और स्वार्थपरता रहती है। बस मनुष्य इन्हीं दोनों के बीच में पड़ा रहता है। अंत में यदि उसका मन पक्का हुआ, तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपना धर्म पालन करता है, पर उसका मन दुविधा में पड़ा रहा, तो स्वार्थपरता उसे निश्चित ही घेरेगी और उसका चरित्र घृणा के योग्य हो जायेगा । इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि आत्मा जिस बात को करने की प्रवृत्ति दें, उसे बिना स्वार्थ सोचे, झटपट कर डालना चाहिए। इस संसार में जितने बड़े-बड़े लोग हुए हैं सभी ने अपने कर्तव्य को सबसे श्रेष्ठ माना है, क्योंकि जितने कर्म उन्होंने किए उन सबमेंअपने कर्तव्य पर ध्यान देकर न्याय का बर्ताव किया । जिन जातियों में यह गुण पाया जाता है, वे ही संसार में उन्नति करती हैं और संसार में उनका नाम आदर से लिया जाता है । जो लोग स्वार्थी होकर अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं देते, वे संसार में लज्जित होते हैं और सब लोग उनसे घृणा करते हैं।
'अपना मतलब निकालने वाला' के लिए उचित शब्द क्या है ?
'अपना मतलब निकालने वाला' को ‘स्वार्थी’ कहा जाता है।
अन्य विकल्प -
अतिरिक्त बिंदु -
निम्नलिखित अवतरण को ध्यानपूर्वक पढ़कर प्रश्न का सही विकल्प चुनकर उत्तर दीजिए।
धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे अधिक बाधा चित्त की चंचलता, उद्देश्य की अस्थिरता और मन की निर्बलता से पड़ती है। मनुष्य के कर्तव्य मार्ग में एक ओर तो आत्मा के बुरे-भले कामों का ज्ञान दूसरी ओर आलस्य और स्वार्थपरता रहती है। बस मनुष्य इन्हीं दोनों के बीच में पड़ा रहता है। अंत में यदि उसका मन पक्का हुआ, तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपना धर्म पालन करता है, पर उसका मन दुविधा में पड़ा रहा, तो स्वार्थपरता उसे निश्चित ही घेरेगी और उसका चरित्र घृणा के योग्य हो जायेगा । इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि आत्मा जिस बात को करने की प्रवृत्ति दें, उसे बिना स्वार्थ सोचे, झटपट कर डालना चाहिए। इस संसार में जितने बड़े-बड़े लोग हुए हैं सभी ने अपने कर्तव्य को सबसे श्रेष्ठ माना है, क्योंकि जितने कर्म उन्होंने किए उन सबमें अपने कर्तव्य पर ध्यान देकर न्याय का बर्ताव किया । जिन जातियों में यह गुण पाया जाता है, वे ही संसार में उन्नति करती हैं और संसार में उनका नाम आदर से लिया जाता है। जो लोग स्वार्थी होकर अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं देते, वे संसार में लज्जित होते हैं और सब लोग उनसे घृणा करते हैं।
'कायर' की भाववाचक संज्ञा है-
'कायर' की भाववाचक संज्ञा कायरता है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु -
अतिरिक्त बिंदु -
निम्नलिखित अवतरण को ध्यानपूर्वक पढ़कर प्रश्न का सही विकल्प चुनकर उत्तर दीजिए।
धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे अधिक बाधा चित्त की चंचलता, उद्देश्य की अस्थिरता और मन की निर्बलता से पड़ती है। मनुष्य के कर्तव्य मार्ग में एक ओर तो आत्मा के बुरे-भले कामों का ज्ञान दूसरी ओर आलस्य और स्वार्थपरता रहती है। बस मनुष्य इन्हीं दोनों के बीच में पड़ा रहता है । अंत में यदि उसका मन पक्का हुआ, तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपना धर्म पालन करता है, पर उसका मन दुविधा में पड़ा रहा, तो स्वार्थपरता उसे निश्चित ही घेरेगी और उसका चरित्र घृणा के योग्य हो जायेगा । इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि आत्मा जिस बात को करने की प्रवृत्ति दें, उसे बिना स्वार्थ सोचे, झटपट कर डालना चाहिए। इस संसार में जितने बड़े-बड़े लोग हुए हैं सभी ने अपने कर्तव्य को सबसे श्रेष्ठ माना है, क्योंकि जितने कर्म उन्होंने किए उन सबमें अपने कर्तव्य पर ध्यान देकर न्याय का बर्ताव किया। जिन जातियों में यह गुण पाया जाता है, वे ही संसार में उन्नति करती हैं और संसार में उनका नाम आदर से लिया जाता है। जो लोग स्वार्थी होकर अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं देते, वे संसार में लज्जित होते हैं और सब लोग उनसे घृणा करते हैं।
'निर्बलता' शब्द में उपसर्ग और प्रत्यय का सही विकल्प है।
'निर्बलता' शब्द में ‘निर्’ उपसर्ग एवं ‘ता’ प्रत्यय का प्रयोग किया गया है।
अतिरिक्त बिंदु -
निम्नलिखित अवतरण को ध्यानपूर्वक पढ़कर प्रश्न का सही विकल्प चुनकर उत्तर दीजिए।
धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे अधिक बाधा चित्त की चंचलता, उद्देश्य की अस्थिरता और मन की निर्बलता से पड़ती है। मनुष्य के कर्तव्य मार्ग में एक ओर तो आत्मा के बुरे-भले कामों का ज्ञान दूसरी ओर आलस्य और स्वार्थपरता रहती है। बस मनुष्य इन्हीं दोनों के बीच में पड़ा रहता है । अंत में यदि उसका मन पक्का हुआ, तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपना धर्म पालन करता है, पर उसका मन दुविधा में पड़ा रहा, तो स्वार्थपरता उसे निश्चित ही घेरेगी और उसका चरित्र घृणा के योग्य हो जायेगा । इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि आत्मा जिस बात को करने की प्रवृत्ति दें, उसे बिना स्वार्थ सोचे, झटपट कर डालना चाहिए। इस संसार में जितने बड़े-बड़े लोग हुए हैं सभी ने अपने कर्तव्य को सबसे श्रेष्ठ माना है, क्योंकि जितने कर्म उन्होंने किए उन सबमें अपने कर्तव्य पर ध्यान देकर न्याय का बर्ताव किया। जिन जातियों में यह गुण पाया जाता है, वे ही संसार में उन्नति करती हैं और संसार में उनका नाम आदर से लिया जाता है। जो लोग स्वार्थी होकर अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं देते, वे संसार में लज्जित होते हैं और सब लोग उनसे घृणा करते हैं।
संसार के बड़े-बड़े लोगों ने सबसे श्रेष्ठ माना है।
इस संसार में जितने बड़े-बड़े लोग हुए हैं सभी ने ‘अपने कर्तव्य को’ सबसे श्रेष्ठ माना है। जिन जातियों में यह गुण पाया जाता है, वे ही संसार में उन्नति करती हैं और संसार में उनका नाम आदर से लिया जाता है।
निम्नलिखित अवतरण को ध्यानपूर्वक पढ़कर प्रश्न का सही विकल्प चुनकर उत्तर दीजिए।
धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे अधिक बाधा चित्त की चंचलता, उद्देश्य की अस्थिरता और मन की निर्बलता से पड़ती है। मनुष्य के कर्तव्य मार्ग में एक ओर तो आत्मा के बुरे-भले कामों का ज्ञान दूसरी ओर आलस्य और स्वार्थपरता रहती है। बस मनुष्य इन्हीं दोनों के बीच में पड़ा रहता है । अंत में यदि उसका मन पक्का हुआ, तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपना धर्म पालन करता है, पर उसका मन दुविधा में पड़ा रहा, तो स्वार्थपरता उसे निश्चित ही घेरेगी और उसका चरित्र घृणा के योग्य हो जायेगा । इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि आत्मा जिस बात को करने की प्रवृत्ति दें, उसे बिना स्वार्थ सोचे, झटपट कर डालना चाहिए। इस संसार में जितने बड़े-बड़े लोग हुए हैं सभी ने अपने कर्तव्य को सबसे श्रेष्ठ माना है, क्योंकि जितने कर्म उन्होंने किए उन सबमें अपने कर्तव्य पर ध्यान देकर न्याय का बर्ताव किया। जिन जातियों में यह गुण पाया जाता है, वे ही संसार में उन्नति करती हैं और संसार में उनका नाम आदर से लिया जाता है। जो लोग स्वार्थी होकर अपने कर्तव्य पर ध्यान नहीं देते, वे संसार में लज्जित होते हैं और सब लोग उनसे घृणा करते हैं।
धर्म पालन करने में बाधा डालने वाली प्रवृत्तियाँ कौन-सी हैं ?
कमजोर मन, उद्देश्य का निश्चित न होना तथा चंचल मनोवृत्ति का होना ही धर्म पालन करने में बाधा डालने वाली प्रवृत्तियाँ हैं। मनुष्य के कर्तव्य मार्ग में एक ओर तो आत्मा के बुरे-भले कामों का ज्ञान दूसरी ओर आलस्य और स्वार्थपरता भी रहती है।
प्रस्तुत गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर विकल्प से छाँटकर लिखिए।
हमारा जीवन पाखंडमय बन गया है और हम इसके बिना नहीं रह सकते हैं। अपने सार्वजनिक जीवन अथवा निजी जीवन में कहीं भी देखें हम एक-दूसरे को छलने की कला का खुलकर उपयोग करते हैं, इसके बावजूद यह विश्वास करते हैं कि हम ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे हैं। हम इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। जिसकी उस अवसर पर कोई आवश्यकता नहीं होती। हम किसी भी बात को यह जानते हुए कि वह सही या सत्य नहीं है लेकिन उसके प्रति निष्ठा या विश्वास इस तरह प्रकट करते हैं कि जैसे हमारे लिए वही एकमात्र सत्य है। हम सब यह इसलिए सरलता से कर लेते हैं क्योंकि आज पाखंड एवं दिखावा हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है। आज हम लोगों में से अधिकांश की स्थिति 'मुँह में कुछ और मन में कुछ और' वाली बन गयी है।
छलने की कला का हम किस प्रकार उपयोग करते हैं?
हम एक-दूसरे को छलने की कला का खुलकर उपयोग करते हैं, इसके बावजूद यह विश्वास करते हैं कि हम ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे हैं।
प्रस्तुत गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर विकल्प से छाँटकर लिखिए।
हमारा जीवन पाखंडमय बन गया है और हम इसके बिना नहीं रह सकते हैं। अपने सार्वजनिक जीवन अथवा निजी जीवन में कहीं भी देखें हम एक-दूसरे को छलने की कला का खुलकर उपयोग करते हैं, इसके बावजूद यह विश्वास करते हैं कि हम ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे हैं। हम इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं। जिसकी उस अवसर पर कोई आवश्यकता नहीं होती। हम किसी भी बात को यह जानते हुए कि वह सही या सत्य नहीं है लेकिन उसके प्रति निष्ठा या विश्वास इस तरह प्रकट करते हैं कि जैसे हमारे लिए वही एकमात्र सत्य है। हम सब यह इसलिए सरलता से कर लेते हैं क्योंकि आज पाखंड एवं दिखावा हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है। आज हम लोगों में से अधिकांश की स्थिति 'मुँह में कुछ और मन में कुछ और' वाली बन गयी है।
हमने जीवन का अभिन्न अंग किसे बना लिया है?
आज पाखंड एवं दिखावा हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है। आज हम लोगों में से अधिकांश की स्थिति 'मुँह में कुछ और मन में कुछ और' वाली बन गयी है।
गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर दीजिए -
राजनीति में साहित्यिक अरुचि के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि वह साहित्यिक प्रस्तुति के विषय के रूप में काफी हद तक राजनीति के अस्पष्ट व्यवहार पर अधिक ध्यान केंद्रित नहीं करता है लेकिन इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि इसे साहित्य में प्रायः कैसे चित्रित किया जाता है अर्थात ऐसी प्रस्तुति की राजनीति क्या है ?राजनीतिक उपन्यास अधिकांशतः केवल राजनीति के बारे में एक उपन्यास नहीं होता है अपितु उसकी अपनी राजनीति होती है। इसलिए वह हमें केवल यह नहीं बताता है कि चीजें कैसी हैं ?अपितु इनसे संबंधित विचारों को स्पष्ट रूप से निश्चित सोच प्रदान करता है कि चीजें कैसी होनी चाहिए और यह बताता है कि किसी को सही-सही ऐसा सोचना और करना चाहिए कि चीजें वांछित दिशा में अग्रसर हों, संक्षेप में वह पाठकों को कारण या विचारधारा विशेष में बदलना या सूचीबद्ध करना चाहता है। यह प्रायः साहित्य नहीं होता है (यह केवल अत्यधिक परिचित पदबंध है ) लेकिन एक प्रचार होता है। इससे साहित्यिक भावना का अतिक्रमण ही होता है, जिससे हम विश्व को भली-भांति समझते हैं और हमारी सहानुभूतियों का प्रभाव-क्षेत्र व्यापक होता है एवं हमारी सोच और सहानुभूति को कटटर प्रतिबद्धता से संकीर्ण न करें, जैसा कि जॉन कीट्स ने कहा है कि 'हमें ऐसे काव्य से घृणा होती है, जो हम पर लाद दिया जाता है'। दूसरा कारण कि क्यों राजनीति उच्च प्रकार की साहित्यिक प्रस्तुति के प्रति अनुकूल आचरण नहीं करती है, यह है कि राजनीति अपने स्वभाव से ही विचार और विचारधारा से निर्मित होती है। यदि राजनितिक स्थिति अपने को उपयुक्त साहित्यिक सम्मान नहीं दे पाती है, तो इस संबंध में राजनीतिक विचार और भी गंभीर समस्या पैदा करते हैं। साहित्य के संबंध में यह तर्क दिया जाता है कि यह बौद्धिक अमूर्त विचारों की बजाय मानव अनुभवों के बारे में होता है। यह मानव जाति की महसूस की गई वास्तविकता पर विचार करता है और नीरस तथा निर्जीव विचारों की बजाय ओजपूर्ण और स्वादपूर्ण (रस)से संबंधित होता है। अमेरिका की उपन्यासकार मेरी मकर्थी ने अपनी पुस्तक 'आइडिया और नॉवल ' में इस विषय पर की गई व्यापक चर्चा में कहा है कि 'उपन्यास में व्यक्त विचारों के बारे में आज भी यह महसूस किया जाता है कि वे अनाकर्षक होते हैं।' हालांकि, ऐसा पहले अथार्त 18 वीं और 19 वीं सदी में नहीं था। एक ओर विचार और दूसरी ओर उपन्यास के बीच असंगति के स्पष्ट स्वरूप का उनका निरूपण संभवतः इस मामले में विभाजित सोच का संकेत है और एक ऐसी दुविधा है जो कई लेखकों ओर पाठकों के बीच है:'विचार सशक्त होते हैं लेकिन मैं प्रायः सोचती हूँ कि उपन्यास में उसकी आवश्यकता होती है। इसके बावजूद उपन्यासकारों के लिए यह महसूस करना काफी सामान्य है ' विचारों के विरुद्ध शस्त्र उठाते समय विचारों के प्रति आकर्षण अनुभव करना वह भी उपहास के हथियारों के साथ।
अपने स्वभाव से राजनीति का ढांचा होता है :
अपने स्वभाव से राजनीति का ढांचा होता है : विचार और विचारधाराएँ।
गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर दीजिए -
राजनीति में साहित्यिक अरुचि के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि वह साहित्यिक प्रस्तुति के विषय के रूप में काफी हद तक राजनीति के अस्पष्ट व्यवहार पर अधिक ध्यान केंद्रित नहीं करता है लेकिन इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि इसे साहित्य में प्रायः कैसे चित्रित किया जाता है अर्थात ऐसी प्रस्तुति की राजनीति क्या है ?राजनीतिक उपन्यास अधिकांशतः केवल राजनीति के बारे में एक उपन्यास नहीं होता है अपितु उसकी अपनी राजनीति होती है। इसलिए वह हमें केवल यह नहीं बताता है कि चीजें कैसी हैं ?अपितु इनसे संबंधित विचारों को स्पष्ट रूप से निश्चित सोच प्रदान करता है कि चीजें कैसी होनी चाहिए और यह बताता है कि किसी को सही-सही ऐसा सोचना और करना चाहिए कि चीजें वांछित दिशा में अग्रसर हों, संक्षेप में वह पाठकों को कारण या विचारधारा विशेष में बदलना या सूचीबद्ध करना चाहता है। यह प्रायः साहित्य नहीं होता है (यह केवल अत्यधिक परिचित पदबंध है ) लेकिन एक प्रचार होता है। इससे साहित्यिक भावना का अतिक्रमण ही होता है, जिससे हम विश्व को भली-भांति समझते हैं और हमारी सहानुभूतियों का प्रभाव-क्षेत्र व्यापक होता है एवं हमारी सोच और सहानुभूति को कटटर प्रतिबद्धता से संकीर्ण न करें, जैसा कि जॉन कीट्स ने कहा है कि 'हमें ऐसे काव्य से घृणा होती है, जो हम पर लाद दिया जाता है'। दूसरा कारण कि क्यों राजनीति उच्च प्रकार की साहित्यिक प्रस्तुति के प्रति अनुकूल आचरण नहीं करती है, यह है कि राजनीति अपने स्वभाव से ही विचार और विचारधारा से निर्मित होती है। यदि राजनितिक स्थिति अपने को उपयुक्त साहित्यिक सम्मान नहीं दे पाती है, तो इस संबंध में राजनीतिक विचार और भी गंभीर समस्या पैदा करते हैं। साहित्य के संबंध में यह तर्क दिया जाता है कि यह बौद्धिक अमूर्त विचारों की बजाय मानव अनुभवों के बारे में होता है। यह मानव जाति की महसूस की गई वास्तविकता पर विचार करता है और नीरस तथा निर्जीव विचारों की बजाय ओजपूर्ण और स्वादपूर्ण (रस)से संबंधित होता है। अमेरिका की उपन्यासकार मेरी मकर्थी ने अपनी पुस्तक 'आइडिया और नॉवल ' में इस विषय पर की गई व्यापक चर्चा में कहा है कि 'उपन्यास में व्यक्त विचारों के बारे में आज भी यह महसूस किया जाता है कि वे अनाकर्षक होते हैं।' हालांकि, ऐसा पहले अथार्त 18 वीं और 19 वीं सदी में नहीं था। एक ओर विचार और दूसरी ओर उपन्यास के बीच असंगति के स्पष्ट स्वरूप का उनका निरूपण संभवतः इस मामले में विभाजित सोच का संकेत है और एक ऐसी दुविधा है जो कई लेखकों ओर पाठकों के बीच है:'विचार सशक्त होते हैं लेकिन मैं प्रायः सोचती हूँ कि उपन्यास में उसकी आवश्यकता होती है। इसके बावजूद उपन्यासकारों के लिए यह महसूस करना काफी सामान्य है ' विचारों के विरुद्ध शस्त्र उठाते समय विचारों के प्रति आकर्षण अनुभव करना वह भी उपहास के हथियारों के साथ।
एक राजनीतिक उपन्यास से निम्नलिखित में से लेखक का बोध का पता चलता है।
गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर दीजिए -
राजनीति में साहित्यिक अरुचि के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि वह साहित्यिक प्रस्तुति के विषय के रूप में काफी हद तक राजनीति के अस्पष्ट व्यवहार पर अधिक ध्यान केंद्रित नहीं करता है लेकिन इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि इसे साहित्य में प्रायः कैसे चित्रित किया जाता है अर्थात ऐसी प्रस्तुति की राजनीति क्या है ?राजनीतिक उपन्यास अधिकांशतः केवल राजनीति के बारे में एक उपन्यास नहीं होता है अपितु उसकी अपनी राजनीति होती है। इसलिए वह हमें केवल यह नहीं बताता है कि चीजें कैसी हैं ?अपितु इनसे संबंधित विचारों को स्पष्ट रूप से निश्चित सोच प्रदान करता है कि चीजें कैसी होनी चाहिए और यह बताता है कि किसी को सही-सही ऐसा सोचना और करना चाहिए कि चीजें वांछित दिशा में अग्रसर हों, संक्षेप में वह पाठकों को कारण या विचारधारा विशेष में बदलना या सूचीबद्ध करना चाहता है। यह प्रायः साहित्य नहीं होता है (यह केवल अत्यधिक परिचित पदबंध है ) लेकिन एक प्रचार होता है। इससे साहित्यिक भावना का अतिक्रमण ही होता है, जिससे हम विश्व को भली-भांति समझते हैं और हमारी सहानुभूतियों का प्रभाव-क्षेत्र व्यापक होता है एवं हमारी सोच और सहानुभूति को कटटर प्रतिबद्धता से संकीर्ण न करें, जैसा कि जॉन कीट्स ने कहा है कि 'हमें ऐसे काव्य से घृणा होती है, जो हम पर लाद दिया जाता है'। दूसरा कारण कि क्यों राजनीति उच्च प्रकार की साहित्यिक प्रस्तुति के प्रति अनुकूल आचरण नहीं करती है, यह है कि राजनीति अपने स्वभाव से ही विचार और विचारधारा से निर्मित होती है। यदि राजनितिक स्थिति अपने को उपयुक्त साहित्यिक सम्मान नहीं दे पाती है, तो इस संबंध में राजनीतिक विचार और भी गंभीर समस्या पैदा करते हैं। साहित्य के संबंध में यह तर्क दिया जाता है कि यह बौद्धिक अमूर्त विचारों की बजाय मानव अनुभवों के बारे में होता है। यह मानव जाति की महसूस की गई वास्तविकता पर विचार करता है और नीरस तथा निर्जीव विचारों की बजाय ओजपूर्ण और स्वादपूर्ण (रस)से संबंधित होता है। अमेरिका की उपन्यासकार मेरी मकर्थी ने अपनी पुस्तक 'आइडिया और नॉवल ' में इस विषय पर की गई व्यापक चर्चा में कहा है कि 'उपन्यास में व्यक्त विचारों के बारे में आज भी यह महसूस किया जाता है कि वे अनाकर्षक होते हैं।' हालांकि, ऐसा पहले अथार्त 18 वीं और 19 वीं सदी में नहीं था। एक ओर विचार और दूसरी ओर उपन्यास के बीच असंगति के स्पष्ट स्वरूप का उनका निरूपण संभवतः इस मामले में विभाजित सोच का संकेत है और एक ऐसी दुविधा है जो कई लेखकों ओर पाठकों के बीच है:'विचार सशक्त होते हैं लेकिन मैं प्रायः सोचती हूँ कि उपन्यास में उसकी आवश्यकता होती है। इसके बावजूद उपन्यासकारों के लिए यह महसूस करना काफी सामान्य है ' विचारों के विरुद्ध शस्त्र उठाते समय विचारों के प्रति आकर्षण अनुभव करना वह भी उपहास के हथियारों के साथ।
इस गद्यांश के अनुसार एक राजनीतिक उपन्यास प्रायः अपनी ही राजनीति वाला उपन्यासबन जाता है।
गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर दीजिए -
राजनीति में साहित्यिक अरुचि के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि वह साहित्यिक प्रस्तुति के विषय के रूप में काफी हद तक राजनीति के अस्पष्ट व्यवहार पर अधिक ध्यान केंद्रित नहीं करता है लेकिन इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि इसे साहित्य में प्रायः कैसे चित्रित किया जाता है अर्थात ऐसी प्रस्तुति की राजनीति क्या है ?राजनीतिक उपन्यास अधिकांशतः केवल राजनीति के बारे में एक उपन्यास नहीं होता है अपितु उसकी अपनी राजनीति होती है। इसलिए वह हमें केवल यह नहीं बताता है कि चीजें कैसी हैं ?अपितु इनसे संबंधित विचारों को स्पष्ट रूप से निश्चित सोच प्रदान करता है कि चीजें कैसी होनी चाहिए और यह बताता है कि किसी को सही-सही ऐसा सोचना और करना चाहिए कि चीजें वांछित दिशा में अग्रसर हों, संक्षेप में वह पाठकों को कारण या विचारधारा विशेष में बदलना या सूचीबद्ध करना चाहता है। यह प्रायः साहित्य नहीं होता है (यह केवल अत्यधिक परिचित पदबंध है ) लेकिन एक प्रचार होता है। इससे साहित्यिक भावना का अतिक्रमण ही होता है, जिससे हम विश्व को भली-भांति समझते हैं और हमारी सहानुभूतियों का प्रभाव-क्षेत्र व्यापक होता है एवं हमारी सोच और सहानुभूति को कटटर प्रतिबद्धता से संकीर्ण न करें, जैसा कि जॉन कीट्स ने कहा है कि 'हमें ऐसे काव्य से घृणा होती है, जो हम पर लाद दिया जाता है'। दूसरा कारण कि क्यों राजनीति उच्च प्रकार की साहित्यिक प्रस्तुति के प्रति अनुकूल आचरण नहीं करती है, यह है कि राजनीति अपने स्वभाव से ही विचार और विचारधारा से निर्मित होती है। यदि राजनितिक स्थिति अपने को उपयुक्त साहित्यिक सम्मान नहीं दे पाती है, तो इस संबंध में राजनीतिक विचार और भी गंभीर समस्या पैदा करते हैं। साहित्य के संबंध में यह तर्क दिया जाता है कि यह बौद्धिक अमूर्त विचारों की बजाय मानव अनुभवों के बारे में होता है। यह मानव जाति की महसूस की गई वास्तविकता पर विचार करता है और नीरस तथा निर्जीव विचारों की बजाय ओजपूर्ण और स्वादपूर्ण (रस)से संबंधित होता है। अमेरिका की उपन्यासकार मेरी मकर्थी ने अपनी पुस्तक 'आइडिया और नॉवल ' में इस विषय पर की गई व्यापक चर्चा में कहा है कि 'उपन्यास में व्यक्त विचारों के बारे में आज भी यह महसूस किया जाता है कि वे अनाकर्षक होते हैं।' हालांकि, ऐसा पहले अथार्त 18 वीं और 19 वीं सदी में नहीं था। एक ओर विचार और दूसरी ओर उपन्यास के बीच असंगति के स्पष्ट स्वरूप का उनका निरूपण संभवतः इस मामले में विभाजित सोच का संकेत है और एक ऐसी दुविधा है जो कई लेखकों ओर पाठकों के बीच है:'विचार सशक्त होते हैं लेकिन मैं प्रायः सोचती हूँ कि उपन्यास में उसकी आवश्यकता होती है। इसके बावजूद उपन्यासकारों के लिए यह महसूस करना काफी सामान्य है ' विचारों के विरुद्ध शस्त्र उठाते समय विचारों के प्रति आकर्षण अनुभव करना वह भी उपहास के हथियारों के साथ।
उपन्यासकार मेरी मकर्थी की टिप्पणियों से उपन्यास में आज के अनदेखे महसूस किए गए विचार का पता चलता है।
गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर दीजिए -
राजनीति में साहित्यिक अरुचि के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि वह साहित्यिक प्रस्तुति के विषय के रूप में काफी हद तक राजनीति के अस्पष्ट व्यवहार पर अधिक ध्यान केंद्रित नहीं करता है लेकिन इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि इसे साहित्य में प्रायः कैसे चित्रित किया जाता है अर्थात ऐसी प्रस्तुति की राजनीति क्या है ?राजनीतिक उपन्यास अधिकांशतः केवल राजनीति के बारे में एक उपन्यास नहीं होता है अपितु उसकी अपनी राजनीति होती है। इसलिए वह हमें केवल यह नहीं बताता है कि चीजें कैसी हैं ?अपितु इनसे संबंधित विचारों को स्पष्ट रूप से निश्चित सोच प्रदान करता है कि चीजें कैसी होनी चाहिए और यह बताता है कि किसी को सही-सही ऐसा सोचना और करना चाहिए कि चीजें वांछित दिशा में अग्रसर हों, संक्षेप में वह पाठकों को कारण या विचारधारा विशेष में बदलना या सूचीबद्ध करना चाहता है। यह प्रायः साहित्य नहीं होता है (यह केवल अत्यधिक परिचित पदबंध है ) लेकिन एक प्रचार होता है। इससे साहित्यिक भावना का अतिक्रमण ही होता है, जिससे हम विश्व को भली-भांति समझते हैं और हमारी सहानुभूतियों का प्रभाव-क्षेत्र व्यापक होता है एवं हमारी सोच और सहानुभूति को कटटर प्रतिबद्धता से संकीर्ण न करें, जैसा कि जॉन कीट्स ने कहा है कि 'हमें ऐसे काव्य से घृणा होती है, जो हम पर लाद दिया जाता है'। दूसरा कारण कि क्यों राजनीति उच्च प्रकार की साहित्यिक प्रस्तुति के प्रति अनुकूल आचरण नहीं करती है, यह है कि राजनीति अपने स्वभाव से ही विचार और विचारधारा से निर्मित होती है। यदि राजनितिक स्थिति अपने को उपयुक्त साहित्यिक सम्मान नहीं दे पाती है, तो इस संबंध में राजनीतिक विचार और भी गंभीर समस्या पैदा करते हैं। साहित्य के संबंध में यह तर्क दिया जाता है कि यह बौद्धिक अमूर्त विचारों की बजाय मानव अनुभवों के बारे में होता है। यह मानव जाति की महसूस की गई वास्तविकता पर विचार करता है और नीरस तथा निर्जीव विचारों की बजाय ओजपूर्ण और स्वादपूर्ण (रस)से संबंधित होता है। अमेरिका की उपन्यासकार मेरी मकर्थी ने अपनी पुस्तक 'आइडिया और नॉवल ' में इस विषय पर की गई व्यापक चर्चा में कहा है कि 'उपन्यास में व्यक्त विचारों के बारे में आज भी यह महसूस किया जाता है कि वे अनाकर्षक होते हैं।' हालांकि, ऐसा पहले अथार्त 18 वीं और 19 वीं सदी में नहीं था। एक ओर विचार और दूसरी ओर उपन्यास के बीच असंगति के स्पष्ट स्वरूप का उनका निरूपण संभवतः इस मामले में विभाजित सोच का संकेत है और एक ऐसी दुविधा है जो कई लेखकों ओर पाठकों के बीच है:'विचार सशक्त होते हैं लेकिन मैं प्रायः सोचती हूँ कि उपन्यास में उसकी आवश्यकता होती है। इसके बावजूद उपन्यासकारों के लिए यह महसूस करना काफी सामान्य है ' विचारों के विरुद्ध शस्त्र उठाते समय विचारों के प्रति आकर्षण अनुभव करना वह भी उपहास के हथियारों के साथ।
साहित्य मेंमानव जीवन की महसूस की गई वास्तविकता पर चर्चा की जाती है।
नीचे दिए गए गद्यांश पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
तत्परता हमारी सबसे मूल्यवान संपत्ति है। इसके द्वारा विश्वसनीयता प्राप्त होती है। वे लोग जो सदैव जागरूक रहते हैं, तत्काल कर्मरत हो जाते हैं और जो समय के पाबन्द हैं, वे सर्वत्र विश्वास के पात्र समझे जाते हैं। वे मालिक जो स्वयं कार्यतत्पर होते हैं, अपने कर्मचारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनते हैं और काम की उपेक्षा करने वालों के लिए अंकुश का काम करते हैं । वे अनुशासन का साधन भी बनते हैं। इस प्रकार अपनी उपयोगिता और सफलता में अभिवृद्धि करने के साथ-साथ वे दूसरों की उपयोगिता और सफलता के भी साधन बनते हैं। एक आलसे व्यक्ति हमेशा ही अपने कार्य को भविष्य के लिए स्थगित करता जाता है, वह समय से पिछड़ता जाता है और इस प्रकार अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी विक्षोभ का कारण बनता है। उसकी सेवाओं का कोई आर्थिक मूल्य नहीं समझा जाता है। कार्य के प्रति उत्साह और उसे शीघ्रता से संपन्न करना। कार्य- तत्परता के दो प्रमुख उपादान है जो समृद्धि की प्राप्ति में उपयोगी बनते हैं।
गद्यांश का उचित संक्षेपण है - जागरूक व्यक्ति सदैव उत्साहित होकर तत्परता से अपने कार्य में जुट जाते हैं और अनुशासित होकर उसे समय पर पूरा कर डालते हैं। समय पर कार्य करने से वे अपने कार्य-क्षेत्र में सभी के विश्वास पात्र बन जाते हैं। और यही विश्वसनीयता सफलता का साधन बनती है। यही तत्परता सफलता और समृद्धि का प्रमुख उपादान है।
नीचे दिए गए गद्यांश पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
तत्परता हमारी सबसे मूल्यवान संपत्ति है। इसके द्वारा विश्वसनीयता प्राप्त होती है। वे लोग जो सदैव जागरूक रहते हैं, तत्काल कर्मरत हो जाते हैं और जो समय के पाबन्द हैं, वे सर्वत्र विश्वास के पात्र समझे जाते हैं। वे मालिक जो स्वयं कार्यतत्पर होते हैं, अपने कर्मचारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनते हैं और काम की उपेक्षा करने वालों के लिए अंकुश का काम करते हैं । वे अनुशासन का साधन भी बनते हैं। इस प्रकार अपनी उपयोगिता और सफलता में अभिवृद्धि करने के साथ-साथ वे दूसरों की उपयोगिता और सफलता के भी साधन बनते हैं। एक आलसी व्यक्ति हमेशा ही अपने कार्य को भविष्य के लिए स्थगित करता जाता है, वह समय से पिछड़ता जाता है और इस प्रकार अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी विक्षोभ का कारण बनता है। उसकी सेवाओं का कोई आर्थिक मूल्य नहीं समझा जाता है। कार्य के प्रति उत्साह और उसे शीघ्रता से संपन्न करना कार्य- तत्परता के दो प्रमुख उपादान है जो समृद्धि की प्राप्ति में उपयोगी बनते हैं।
जीवन में सफल सिद्ध होने के लिए आवश्यक उपादानों में से एक प्रमुख उपादान क्या है?
गद्यांश के अनुसार जीवन में सफल सिद्ध होने के लिए आवश्यक उपादानों में से एक प्रमुख उपादान तत्परता है।
नीचे दिए गए गद्यांश पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
तत्परता हमारी सबसे मूल्यवान संपत्ति है। इसके द्वारा विश्वसनीयता प्राप्त होती है। वे लोग जो सदैव जागरूक रहते हैं, तत्काल कर्मरत हो जाते हैं और जो समय के पाबन्द हैं, वे सर्वत्र विश्वास के पात्र समझे जाते हैं। वे मालिक जो स्वयं कार्यतत्पर होते हैं, अपने कर्मचारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनते हैं और काम की उपेक्षा करने वालों के लिए अंकुश का काम करते हैं । वे अनुशासन का साधन भी बनते हैं। इस प्रकार अपनी उपयोगिता और सफलता में अभिवृद्धि करने के साथ-साथ वे दूसरों की उपयोगिता और सफलता के भी साधन बनते हैं। एक आलसी व्यक्ति हमेशा ही अपने कार्य को भविष्य के लिए स्थगित करता जाता है, वह समय से पिछड़ता जाता है और इस प्रकार अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी विक्षोभ का कारण बनता है। उसकी सेवाओं का कोई आर्थिक मूल्य नहीं समझा जाता है। कार्य के प्रति उत्साह और उसे शीघ्रता से संपन्न करना कार्य- तत्परता के दो प्रमुख उपादान है जो समृद्धि की प्राप्ति में उपयोगी बनते हैं।
उपर्युक्त अवतरण का उपयुक्त शीर्षक दीजिए:
उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक कार्य- तत्परता होगा क्योंकि तत्परता हमारी सबसे मूल्यवान संपत्ति है। इसके द्वारा विश्वसनीयता प्राप्त होती है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए:
जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अन्तर्गत लिया जाता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्धवीर, दानवीर, दयावीर इत्यादि भेद किये हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्धवीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा या मृत्यु की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं। पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनन्दपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिये।
उत्साह के भेद किस आधार पर किए गये हैं ?
उत्साह के भेद कष्ट या हानि के भेद के आधार पर किए गये हैं।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए:
जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अन्तर्गत लिया जाता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्धवीर, दानवीर, दयावीर इत्यादि भेद किये हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्धवीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा या मृत्यु की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं। पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनन्दपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिये।
साहित्य मीमांसकों ने वीरता के कौन-कौन से भेद किये हैं ?
साहित्य मीमांसकों ने वीरता के युद्धवीर, दानवीर और दयावीर भेद किये हैं।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए:
जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अन्तर्गत लिया जाता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्धवीर, दानवीर, दयावीर इत्यादि भेद किये हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्धवीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा या मृत्यु की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं। पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनन्दपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिये।
उत्कंठापूर्ण आनन्द किसके अन्तर्गत लिया जाता है ?
उत्कंठापूर्ण आनन्द उत्साह के अंतर्गत लिया जाता है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए:
जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अन्तर्गत लिया जाता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्धवीर, दानवीर, दयावीर इत्यादि भेद किये हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्धवीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा या मृत्यु की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं। पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनन्दपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिये।
युद्धवीरता के लिए किस प्रकार की प्रकृति अपेक्षित है?
युद्धवीरता के लिए साहस, प्रयत्न और कष्ट सहने का धीरज की प्रकृति अपेक्षित है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए:
जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अन्तर्गत लिया जाता है। कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं। साहित्य मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्धवीर, दानवीर, दयावीर इत्यादि भेद किये हैं। इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्धवीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा या मृत्यु की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं। पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता। उसके साथ आनन्दपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिये।
गद्यांश के अनुसार सबसे प्राचीन वीरता युद्धवीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा या मृत्यु की परवाह नहीं रहती।