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अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्नों के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए :
लोभ चाहे जिस वस्तु का हो जब वह बहुत बढ़ जाता है तब उस वस्तु की प्राप्ति, सानिध्य या उपभोग से जी नहीं भरता। मनुष्य चाहता है कि वह बार-बार मिले या बराबर मिलता रहे। धन का लोभ जब रोग होकर चित्त में घर कर लेता है, तब प्राप्ति होने पर भी और प्राप्ति की इच्छा बराबर बनी रहती है जिससे मनुष्य सदा आतुर और प्राप्ति के आनन्द से विमुख रहता है। जितना नहीं है उतने के पीछे जितना है उतने से प्रसन्न होने का उसे कभी अवसर ही नहीं मिलता। उसका सारा अन्तःकरण सदा अभावमय रहता है। उसके लिए जो है वह भी नहीं है। असन्तोष अभाव- कल्पना से उत्पन्न दुःख है; अतः जिस किसी में यह अभाव-कल्पना स्वाभाविक हो जाती है, सुख से उसका नाता सब दिन के लिए टूट जाता है। न किसी को देखकर वह प्रसन्न होता है और न उसे देखकर कोई प्रसन्न होता है। इसी से सन्तोष सात्विक जीवन का अंग बताया गया है।
असन्तोष किस प्रकार का दुःख माना गया है?
असंतोष अभाव-कल्पना से उत्पन्न दुःख माना गया है; अतः जिस किसी में यह अभाव-कल्पना स्वाभाविक हो जाती है। सुख से उसका नाता सब दिन के लिए टूट जाता है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्नों के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए :
लोभ चाहे जिस वस्तु का हो जब वह बहुत बढ़ जाता है तब उस वस्तु की प्राप्ति, सानिध्य या उपभोग से जी नहीं भरता। मनुष्य चाहता है कि वह बार-बार मिले या बराबर मिलता रहे। धन का लोभ जब रोग होकर चित्त में घर कर लेता है, तब प्राप्ति होने पर भी और प्राप्ति की इच्छा बराबर बनी रहती है जिससे मनुष्य सदा आतुर और प्राप्ति के आनन्द से विमुख रहता है। जितना नहीं है उतने के पीछे जितना है उतने से प्रसन्न होने का उसे कभी अवसर ही नहीं मिलता। उसका सारा अन्तःकरण सदा अभावमय रहता है। उसके लिए जो है वह भी नहीं है। असन्तोष अभाव- कल्पना से उत्पन्न दुःख है; अतः जिस किसी में यह अभाव-कल्पना स्वाभाविक हो जाती है, सुख से उसका नाता सब दिन के लिए टूट जाता है। न किसी को देखकर वह प्रसन्न होता है और न उसे देखकर कोई प्रसन्न होता है। इसी से सन्तोष सात्विक जीवन का अंग बताया गया है।
सात्विक जीवन का अंग किसे कहा गया है ?
सात्विक जीवन का अंग संतोष को कहा गया है क्योंकि संतोष युक्त व्यक्ति न किसी को देखकर वह प्रसन्न होता है और न उसे देखकर कोई प्रसन्न होता है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्नों के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए :
लोभ चाहे जिस वस्तु का हो जब वह बहुत बढ़ जाता है तब उस वस्तु की प्राप्ति, सानिध्य या उपभोग से जी नहीं भरता। मनुष्य चाहता है कि वह बार-बार मिले या बराबर मिलता रहे। धन का लोभ जब रोग होकर चित्त में घर कर लेता है, तब प्राप्ति होने पर भी और प्राप्ति की इच्छा बराबर बनी रहती है जिससे मनुष्य सदा आतुर और प्राप्ति के आनन्द से विमुख रहता है। जितना नहीं है उतने के पीछे जितना है उतने से प्रसन्न होने का उसे कभी अवसर ही नहीं मिलता। उसका सारा अन्तःकरण सदा अभावमय रहता है। उसके लिए जो है वह भी नहीं है। असन्तोष अभाव- कल्पना से उत्पन्न दुःख है; अतः जिस किसी में यह अभाव-कल्पना स्वाभाविक हो जाती है, सुख से उसका नाता सब दिन के लिए टूट जाता है। न किसी को देखकर वह प्रसन्न होता है और न उसे देखकर कोई प्रसन्न होता है। इसी से सन्तोष सात्विक जीवन का अंग बताया गया है।
गद्यांश में किस शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है?
गद्यांश में अभावग्रस्त शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु -
अभावग्रस्त का अर्थ है - निर्धन।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्नों के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए :
लोभ चाहे जिस वस्तु का हो जब वह बहुत बढ़ जाता है तब उस वस्तु की प्राप्ति, सानिध्य या उपभोग से जी नहीं भरता। मनुष्य चाहता है कि वह बार-बार मिले या बराबर मिलता रहे। धन का लोभ जब रोग होकर चित्त में घर कर लेता है, तब प्राप्ति होने पर भी और प्राप्ति की इच्छा बराबर बनी रहती है जिससे मनुष्य सदा आतुर और प्राप्ति के आनन्द से विमुख रहता है। जितना नहीं है उतने के पीछे जितना है उतने से प्रसन्न होने का उसे कभी अवसर ही नहीं मिलता। उसका सारा अन्तःकरण सदा अभावमय रहता है। उसके लिए जो है वह भी नहीं है। असन्तोष अभाव- कल्पना से उत्पन्न दुःख है; अतः जिस किसी में यह अभाव-कल्पना स्वाभाविक हो जाती है, सुख से उसका नाता सब दिन के लिए टूट जाता है। न किसी को देखकर वह प्रसन्न होता है और न उसे देखकर कोई प्रसन्न होता है। इसी से सन्तोष सात्विक जीवन का अंग बताया गया है।
गद्यांश का सही शीर्षक है
गद्यांश का सही शीर्षक लोभ और असंतोष है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्नों के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए :
लोभ चाहे जिस वस्तु का हो जब वह बहुत बढ़ जाता है तब उस वस्तु की प्राप्ति, सानिध्य या उपभोग से जी नहीं भरता। मनुष्य चाहता है कि वह बार-बार मिले या बराबर मिलता रहे। धन का लोभ जब रोग होकर चित्त में घर कर लेता है, तब प्राप्ति होने पर भी और प्राप्ति की इच्छा बराबर बनी रहती है जिससे मनुष्य सदा आतुर और प्राप्ति के आनन्द से विमुख रहता है। जितना नहीं है उतने के पीछे जितना है उतने से प्रसन्न होने का उसे कभी अवसर ही नहीं मिलता। उसका सारा अन्तःकरण सदा अभावमय रहता है। उसके लिए जो है वह भी नहीं है। असन्तोष अभाव- कल्पना से उत्पन्न दुःख है; अतः जिस किसी में यह अभाव-कल्पना स्वाभाविक हो जाती है, सुख से उसका नाता सब दिन के लिए टूट जाता है। न किसी को देखकर वह प्रसन्न होता है और न उसे देखकर कोई प्रसन्न होता है। इसी से सन्तोष सात्विक जीवन का अंग बताया गया है।
मनुष्य का अन्तःकरण सदैव अभावमय क्यों रहता है?
मनुष्य का अन्तःकरण सदैव अभावमय इसलिए रहता है क्योंकि जितना है उतने से प्रसन्न होने का उसे कभी अवसर नहीं मिलता।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा गद्यांश के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
प्रकृति ने मानव जीवन को बहुत सरल बनाया है, किन्तु आज का मानव अपने जीवन-काल में ही पूरी दुनिया की सुख-समृद्धि बटोर लेने के प्रयास में उसको जटिल बनाता जा रहा है। इस जटिलता के कारण संसार में धनी-निर्धन, सत्ताधीश-सत्ताच्युत, संतानवान- निस्संतान सभी सुख-शान्ति की चाह तो रखते हैं, किन्तु राह पकड़ते हैं आह भरने की, मरु-मरीचिका के मैदान में जल की, धधकती आग में शीतलता की चाह रखते हैं। विद्वानों का विचार है कि संसार में सुख का मार्ग है - आत्मसंयम। किन्तु मानव इस मार्ग को भूलकर सांसारिक पदार्थों में, इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में आनन्द ढूँढ़ रहा है। परिणामतः दुःख के सागर में डूबता जा रहा है। आत्मसंयम का मार्ग अपने में बहुत स्पष्ट है, उसकी उपादेयता किसी भी काल में कम नहीं होती। इन्द्रिय विषयों का संयम ही आत्मसंयम है। भौतिक पदार्थों के प्रति इन्द्रियों का प्रबल आकर्षण मानवीय दुःखों का मूल कारण माना गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव से यह आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। पर ऐसी स्थिति में याद रखना आवश्यक है कि ये भौतिक पदार्थ सुख तो दे सकते हैं, आनन्द नहीं। आनन्द का निर्झर तो आत्मसंयम से फूटता है। उसकी मिठास अनिर्वचनीय और अनुपम होती है। इस मिठास के सम्मुख धन-संपत्ति, सत्ता, सौंदर्य का सुख, सागर के खारे पानी जैसा लगने लगता है।
भौतिक पदार्थों के प्रति इन्द्रियों का प्रबल आकर्षण है
भौतिक पदार्थों के प्रति इन्द्रियों का प्रबल आकर्षण मानवीय दुःखों का मूल कारण है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा गद्यांश के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
प्रकृति ने मानव जीवन को बहुत सरल बनाया है, किन्तु आज का मानव अपने जीवन-काल में ही पूरी दुनिया की सुख-समृद्धि बटोर लेने के प्रयास में उसको जटिल बनाता जा रहा है। इस जटिलता के कारण संसार में धनी-निर्धन, सत्ताधीश-सत्ताच्युत, संतानवान- निस्संतान सभी सुख-शान्ति की चाह तो रखते हैं, किन्तु राह पकड़ते हैं आह भरने की, मरु-मरीचिका के मैदान में जल की, धधकती आग में शीतलता की चाह रखते हैं। विद्वानों का विचार है कि संसार में सुख का मार्ग है - आत्मसंयम। किन्तु मानव इस मार्ग को भूलकर सांसारिक पदार्थों में, इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में आनन्द ढूँढ़ रहा है। परिणामतः दुःख के सागर में डूबता जा रहा है। आत्मसंयम का मार्ग अपने में बहुत स्पष्ट है, उसकी उपादेयता किसी भी काल में कम नहीं होती। इन्द्रिय विषयों का संयम ही आत्मसंयम है। भौतिक पदार्थों के प्रति इन्द्रियों का प्रबल आकर्षण मानवीय दुःखों का मूल कारण माना गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव से यह आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। पर ऐसी स्थिति में याद रखना आवश्यक है कि ये भौतिक पदार्थ सुख तो दे सकते हैं, आनन्द नहीं। आनन्द का निर्झर तो आत्मसंयम से फूटता है। उसकी मिठास अनिर्वचनीय और अनुपम होती है। इस मिठास के सम्मुख धन-संपत्ति, सत्ता, सौंदर्य का सुख, सागर के खारे पानी जैसा लगने लगता है।
गद्यांश के अनुसार भौतिक पदार्थ
गद्यांश के अनुसार भौतिक पदार्थ सुख दे सकते हैं किंतु आनंद नहीं।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा गद्यांश के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
प्रकृति ने मानव जीवन को बहुत सरल बनाया है, किन्तु आज का मानव अपने जीवन-काल में ही पूरी दुनिया की सुख-समृद्धि बटोर लेने के प्रयास में उसको जटिल बनाता जा रहा है। इस जटिलता के कारण संसार में धनी-निर्धन, सत्ताधीश-सत्ताच्युत, संतानवान- निस्संतान सभी सुख-शान्ति की चाह तो रखते हैं, किन्तु राह पकड़ते हैं आह भरने की, मरु-मरीचिका के मैदान में जल की, धधकती आग में शीतलता की चाह रखते हैं। विद्वानों का विचार है कि संसार में सुख का मार्ग है - आत्मसंयम। किन्तु मानव इस मार्ग को भूलकर सांसारिक पदार्थों में, इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में आनन्द ढूँढ़ रहा है। परिणामतः दुःख के सागर में डूबता जा रहा है। आत्मसंयम का मार्ग अपने में बहुत स्पष्ट है, उसकी उपादेयता किसी भी काल में कम नहीं होती। इन्द्रिय विषयों का संयम ही आत्मसंयम है। भौतिक पदार्थों के प्रति इन्द्रियों का प्रबल आकर्षण मानवीय दुःखों का मूल कारण माना गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव से यह आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। पर ऐसी स्थिति में याद रखना आवश्यक है कि ये भौतिक पदार्थ सुख तो दे सकते हैं, आनन्द नहीं। आनन्द का निर्झर तो आत्मसंयम से फूटता है। उसकी मिठास अनिर्वचनीय और अनुपम होती है। इस मिठास के सम्मुख धन-संपत्ति, सत्ता, सौंदर्य का सुख, सागर के खारे पानी जैसा लगने लगता है।
आज का मानव जीवन को अधिक जटिल कैसे बना रहा है ?
आज का मानव जीवन को अधिक जटिल संसार की सुख-समृद्धि को बटोरने के प्रयत्न से बना रहा है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा गद्यांश के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
प्रकृति ने मानव जीवन को बहुत सरल बनाया है, किन्तु आज का मानव अपने जीवन-काल में ही पूरी दुनिया की सुख-समृद्धि बटोर लेने के प्रयास में उसको जटिल बनाता जा रहा है। इस जटिलता के कारण संसार में धनी-निर्धन, सत्ताधीश-सत्ताच्युत, संतानवान- निस्संतान सभी सुख-शान्ति की चाह तो रखते हैं, किन्तु राह पकड़ते हैं आह भरने की, मरु-मरीचिका के मैदान में जल की, धधकती आग में शीतलता की चाह रखते हैं। विद्वानों का विचार है कि संसार में सुख का मार्ग है - आत्मसंयम। किन्तु मानव इस मार्ग को भूलकर सांसारिक पदार्थों में, इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में आनन्द ढूँढ़ रहा है। परिणामतः दुःख के सागर में डूबता जा रहा है। आत्मसंयम का मार्ग अपने में बहुत स्पष्ट है, उसकी उपादेयता किसी भी काल में कम नहीं होती। इन्द्रिय विषयों का संयम ही आत्मसंयम है। भौतिक पदार्थों के प्रति इन्द्रियों का प्रबल आकर्षण मानवीय दुःखों का मूल कारण माना गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव से यह आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। पर ऐसी स्थिति में याद रखना आवश्यक है कि ये भौतिक पदार्थ सुख तो दे सकते हैं, आनन्द नहीं। आनन्द का निर्झर तो आत्मसंयम से फूटता है। उसकी मिठास अनिर्वचनीय और अनुपम होती है। इस मिठास के सम्मुख धन-संपत्ति, सत्ता, सौंदर्य का सुख, सागर के खारे पानी जैसा लगने लगता है।
सत्ताच्युत का सही वर्तनी विश्लेषण है।
सत्ताच्युत का सही वर्तनी विश्लेषण है - स् अ त् त् आ च् य् उ त् अ।
महत्त्वपूर्ण बिंदु -
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा गद्यांश के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
प्रकृति ने मानव जीवन को बहुत सरल बनाया है, किन्तु आज का मानव अपने जीवन-काल में ही पूरी दुनिया की सुख-समृद्धि बटोर लेने के प्रयास में उसको जटिल बनाता जा रहा है। इस जटिलता के कारण संसार में धनी-निर्धन, सत्ताधीश-सत्ताच्युत, संतानवान- निस्संतान सभी सुख-शान्ति की चाह तो रखते हैं, किन्तु राह पकड़ते हैं आह भरने की, मरु-मरीचिका के मैदान में जल की, धधकती आग में शीतलता की चाह रखते हैं। विद्वानों का विचार है कि संसार में सुख का मार्ग है - आत्मसंयम। किन्तु मानव इस मार्ग को भूलकर सांसारिक पदार्थों में, इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में आनन्द ढूँढ़ रहा है। परिणामतः दुःख के सागर में डूबता जा रहा है। आत्मसंयम का मार्ग अपने में बहुत स्पष्ट है, उसकी उपादेयता किसी भी काल में कम नहीं होती। इन्द्रिय विषयों का संयम ही आत्मसंयम है। भौतिक पदार्थों के प्रति इन्द्रियों का प्रबल आकर्षण मानवीय दुःखों का मूल कारण माना गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव से यह आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। पर ऐसी स्थिति में याद रखना आवश्यक है कि ये भौतिक पदार्थ सुख तो दे सकते हैं, आनन्द नहीं। आनन्द का निर्झर तो आत्मसंयम से फूटता है। उसकी मिठास अनिर्वचनीय और अनुपम होती है। इस मिठास के सम्मुख धन-संपत्ति, सत्ता, सौंदर्य का सुख, सागर के खारे पानी जैसा लगने लगता है।
आत्मसंयम का तात्पर्य है
आत्मसंयम का तात्पर्य है - इन्द्रियों के विषय के प्रति आकर्षण पर संयमन।
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा उत्तर इस गद्यांश के आधार पर ही दीजिए।
प्रत्येक राष्ट्राभिमानी के हृदय में अपने देश, अपने देश की संस्कृति तथा भाषा के प्रति प्रेम और अभिमान सहज ही होता है। वह अपने राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और राष्ट्रभाषा के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने को सदैव तत्पर रहता है। जिस देश के निवासियों के हृदय में यह उत्सर्ग भावना नहीं होती वह राष्ट्र, पराधीन होकर अपनी सुख शान्ति और समृद्धि सदा के लिए खो बैठता है। देशभक्ति और सार्वजानिक हित के बिना राष्ट्रीय महत्ता का अस्तित्व ही नहीं रह सकता | यह भावना उसे इस बात का प्रयत्न करने को प्रेरित करती है कि वह अन्याय से दुर्बलों की रक्षा कर अनऔचित्य का निवारण करे, धर्म पर स्थिर रहे और न्याय के लिए लड़े। समाज को हानि पहुँचाकर अनुचित लाभ उठाना एकदम अस्वीकार कर दे, अपने समाज के प्रति कर्तव्य के मुख मोड़कर उसे धोखा न दे।
देश भक्ति प्रेरित करती है:
देश भक्ति प्रेरित करती है: अनोचित्य का निवारण करने के लिए।
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा उत्तर इस गद्यांश के आधार पर ही दीजिए।
प्रत्येक राष्ट्राभिमानी के हृदय में अपने देश, अपने देश की संस्कृति तथा भाषा के प्रति प्रेम और अभिमान सहज ही होता है। वह अपने राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और राष्ट्रभाषा के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने को सदैव तत्पर रहता है। जिस देश के निवासियों के हृदय में यह उत्सर्ग भावना नहीं होती वह राष्ट्र, पराधीन होकर अपनी सुख शान्ति और समृद्धि सदा के लिए खो बैठता है। देशभक्ति और सार्वजानिक हित के बिना राष्ट्रीय महत्ता का अस्तित्व ही नहीं रह सकता | यह भावना उसे इस बात का प्रयत्न करने को प्रेरित करती है कि वह अन्याय से दुर्बलों की रक्षा कर अनऔचित्य का निवारण करे, धर्म पर स्थिर रहे और न्याय के लिए लडे। समाज को हानि पहुँचाकर अनुचित लाभ उठाना एकदम अस्वीकार कर दे, अपने समाज के प्रति कर्तव्य के मुख मोड़कर उसे धोखा न दे।
प्रत्येक राष्ट्राभिमानी के हृदय में अभिमान होता है: देश की भाषा के लिए।
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा उत्तर इस गद्यांश के आधार पर ही दीजिए।
प्रत्येक राष्ट्राभिमानी के हृदय में अपने देश, अपने देश की संस्कृति तथा भाषा के प्रति प्रेम और अभिमान सहज ही होता है। वह अपने राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और राष्ट्रभाषा के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने को सदैव तत्पर रहता है। जिस देश के निवासियों के हृदय में यह उत्सर्ग भावना नहीं होती वह राष्ट्र, पराधीन होकर अपनी सुख शान्ति और समृद्धि सदा के लिए खो बैठता है। देशभक्ति और सार्वजानिक हित के बिना राष्ट्रीय महत्ता का अस्तित्व ही नहीं रह सकता | यह भावना उसे इस बात का प्रयत्न करने को प्रेरित करती है कि वह अन्याय से दुर्बलों की रक्षा कर अनऔचित्य का निवारण करे, धर्म पर स्थिर रहे और न्याय के लिए लडे। समाज को हानि पहुँचाकर अनुचित लाभ उठाना एकदम अस्वीकार कर दे, अपने समाज के प्रति कर्तव्य के मुख मोड़कर उसे धोखा न दे।
गद्यांश का सही शीर्षक है: राष्ट्राभिमान।
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा उत्तर इस गद्यांश के आधार पर ही दीजिए।
प्रत्येक राष्ट्राभिमानी के हृदय में अपने देश, अपने देश की संस्कृति तथा भाषा के प्रति प्रेम और अभिमान सहज ही होता है। वह अपने राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और राष्ट्रभाषा के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने को सदैव तत्पर रहता है। जिस देश के निवासियों के हृदय में यह उत्सर्ग भावना नहीं होती वह राष्ट्र, पराधीन होकर अपनी सुख शान्ति और समृद्धि सदा के लिए खो बैठता है। देशभक्ति और सार्वजानिक हित के बिना राष्ट्रीय महत्ता का अस्तित्व ही नहीं रह सकता | यह भावना उसे इस बात का प्रयत्न करने को प्रेरित करती है कि वह अन्याय से दुर्बलों की रक्षा कर अनऔचित्य का निवारण करे, धर्म पर स्थिर रहे और न्याय के लिए लडे। समाज को हानि पहुँचाकर अनुचित लाभ उठाना एकदम अस्वीकार कर दे, अपने समाज के प्रति कर्तव्य के मुख मोड़कर उसे धोखा न दे।
पराधीन राष्ट्र खो बैठता है : अपनी समृद्धि।
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा उत्तर इस गद्यांश के आधार पर ही दीजिए।
प्रत्येक राष्ट्राभिमानी के हृदय में अपने देश, अपने देश की संस्कृति तथा भाषा के प्रति प्रेम और अभिमान सहज ही होता है। वह अपने राष्ट्र, अपनी जन्मभूमि और राष्ट्रभाषा के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने को सदैव तत्पर रहता है। जिस देश के निवासियों के हृदय में यह उत्सर्ग भावना नहीं होती वह राष्ट्र, पराधीन होकर अपनी सुख शान्ति और समृद्धि सदा के लिए खो बैठता है। देशभक्ति और सार्वजानिक हित के बिना राष्ट्रीय महत्ता का अस्तित्व ही नहीं रह सकता | यह भावना उसे इस बात का प्रयत्न करने को प्रेरित करती है कि वह अन्याय से दुर्बलों की रक्षा कर अनऔचित्य का निवारण करे, धर्म पर स्थिर रहे और न्याय के लिए लडे। समाज को हानि पहुँचाकर अनुचित लाभ उठाना एकदम अस्वीकार कर दे, अपने समाज के प्रति कर्तव्य के मुख मोड़कर उसे धोखा न दे।
गद्यांश में अधर्मशब्द का प्रयोग नहीं है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए।
मानव के पास समस्त जगत् को देखने-परखने के दो नजरिए हैं, एक आशावादी दूसरा निराशावादी। इसे सकारात्मक और नकारात्मकता दृष्टि भी कहते हैं। जो आशावादी या सकारात्मक मार्ग पर चलते है, वे सदैव आनन्द की अनुभूति प्राप्त करते हैं तथा निराशावादी या नकारात्मकता दृष्टि वाले दुःख के सागर में डूबे रहते हैं और सदा अपने आपको प्रस्थापित करने के लिए तर्क किया करते हैं। वे भूल जाते है कि तर्क और कुतर्क से ज्ञान का नाश होता है एवं जीवन में विकृति उत्पन्न होती है। आशावादी कभी तर्क नहीं करता, फलस्वरूप वह आन्तरिक आनन्द की प्रतीति करता है। वह मानता है कि आत्मिक आनन्द कभी प्रहार या काटने की प्रक्रिया में नहीं है। किसी परम्परा का विरोध करने से ही प्रतिमा ऊपर नहीं उठती। विरोध से नाश होता है। इसीलिए जगत् में सदा आशावाद ही पनपा है, उसने ही महान् व्यक्तियों का सृजन किया है। निराशावाद या नकारात्मकता की नींव पर कभी किसी जीवन-प्रासाद का निर्माण नहीं हुआ।
'आत्मिक आनंद' से आशय है
‘आत्मिक आनंद’ से आशय है - मन की मौज।
अन्य विकल्प -
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए।
मानव के पास समस्त जगत् को देखने-परखने के दो नजरिए हैं, एक आशावादी दूसरा निराशावादी। इसे सकारात्मक और नकारात्मकता दृष्टि भी कहते हैं। जो आशावादी या सकारात्मक मार्ग पर चलते है, वे सदैव आनन्द की अनुभूति प्राप्त करते हैं तथा निराशावादी या नकारात्मकता दृष्टि वाले दुःख के सागर में डूबे रहते हैं और सदा अपने आपको प्रस्थापित करने के लिए तर्क किया करते हैं। वे भूल जाते है कि तर्क और कुतर्क से ज्ञान का नाश होता है एवं जीवन में विकृति उत्पन्न होती है। आशावादी कभी तर्क नहीं करता, फलस्वरूप वह आन्तरिक आनन्द की प्रतीति करता है। वह मानता है कि आत्मिक आनन्द कभी प्रहार या काटने की प्रक्रिया में नहीं है। किसी परम्परा का विरोध करने से ही प्रतिमा ऊपर नहीं उठती। विरोध से नाश होता है। इसीलिए जगत् में सदा आशावाद ही पनपा है, उसने ही महान् व्यक्तियों का सृजन किया है। निराशावाद या नकारात्मकता की नींव पर कभी किसी जीवन-प्रासाद का निर्माण नहीं हुआ।
निराशावादी दु:ख के सागर में डूबे रहते है और सदा अपने आपको प्रस्थापित करने के लिए तर्क किया करते है, के लिए कहा जा सकता है
उपर्युक्त सभी विकल्प सही हैं।
निराशा कुण्ठा और प्रवंचना की जननी है। निराशावादी का चेहरा चिन्ता की रेखाओं से घिरा रहता है। निराशावादी व्यक्ति दूसरों के आनन्द से दुखी रहते हैं।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए।
मानव के पास समस्त जगत् को देखने-परखने के दो नजरिए हैं, एक आशावादी दूसरा निराशावादी। इसे सकारात्मक और नकारात्मकता दृष्टि भी कहते हैं। जो आशावादी या सकारात्मक मार्ग पर चलते है, वे सदैव आनन्द की अनुभूति प्राप्त करते हैं तथा निराशावादी या नकारात्मकता दृष्टि वाले दुःख के सागर में डूबे रहते हैं और सदा अपने आपको प्रस्थापित करने के लिए तर्क किया करते हैं। वे भूल जाते है कि तर्क और कुतर्क से ज्ञान का नाश होता है एवं जीवन में विकृति उत्पन्न होती है। आशावादी कभी तर्क नहीं करता, फलस्वरूप वह आन्तरिक आनन्द की प्रतीति करता है। वह मानता है कि आत्मिक आनन्द कमी प्रहार या काटने की प्रक्रिया में नहीं है। किसी परम्परा का विरोध करने से ही प्रतिमा ऊपर नहीं उठती। विरोध से नाश होता है। इसीलिए जगत् में सदा आशावाद ही पनपा है, उसने ही महान् व्यक्तियों का सृजन किया है। निराशावाद या नकारात्मकता की नींव पर कभी किसी जीवन-प्रासाद का निर्माण नहीं हुआ।
नकारात्मकता का आशय है
नकारात्मकता का आशय निराशावाद है।
अन्य विकल्प -
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए।
मानव के पास समस्त जगत् को देखने-परखने के दो नजरिए हैं, एक आशावादी दूसरा निराशावादी। इसे सकारात्मक और नकारात्मकता दृष्टि भी कहते हैं। जो आशावादी या सकारात्मक मार्ग पर चलते है, वे सदैव आनन्द की अनुभूति प्राप्त करते हैं तथा निराशावादी या नकारात्मकता दृष्टि वाले दुःख के सागर में डूबे रहते हैं और सदा अपने आपको प्रस्थापित करने के लिए तर्क किया करते हैं। वे भूल जाते है कि तर्क और कुतर्क से ज्ञान का नाश होता है एवं जीवन में विकृति उत्पन्न होती है। आशावादी कभी तर्क नहीं करता, फलस्वरूप वह आन्तरिक आनन्द की प्रतीति करता है। वह मानता है कि आत्मिक आनन्द कमी प्रहार या काटने की प्रक्रिया में नहीं है। किसी परम्परा का विरोध करने से ही प्रतिमा ऊपर नहीं उठती। विरोध से नाश होता है। इसीलिए जगत् में सदा आशावाद ही पनपा है, उसने ही महान् व्यक्तियों का सृजन किया है। निराशावाद या नकारात्मकता की नींव पर कभी किसी जीवन-प्रासाद का निर्माण नहीं हुआ।
परम्परा का विरोध करने से प्रतिभा ऊपर नहीं उठती का आशय है
परम्परा का विरोध करने से प्रतिभा ऊपर नहीं उठती का आशय है - परम्परा को स्वीकारने से प्रतिभा नष्ट नहीं होती।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए।
मानव के पास समस्त जगत् को देखने-परखने के दो नजरिए हैं, एक आशावादी दूसरा निराशावादी। इसे सकारात्मक और नकारात्मकता दृष्टि भी कहते हैं। जो आशावादी या सकारात्मक मार्ग पर चलते है, वे सदैव आनन्द की अनुभूति प्राप्त करते हैं तथा निराशावादी या नकारात्मकता दृष्टि वाले दुःख के सागर में डूबे रहते हैं और सदा अपने आपको प्रस्थापित करने के लिए तर्क किया करते हैं। वे भूल जाते है कि तर्क और कुतर्क से ज्ञान का नाश होता है एवं जीवन में विकृति उत्पन्न होती है। आशावादी कभी तर्क नहीं करता, फलस्वरूप वह आन्तरिक आनन्द की प्रतीति करता है। वह मानता है कि आत्मिक आनन्द कभी प्रहार या काटने की प्रक्रिया में नहीं है। किसी परम्परा का विरोध करने से ही प्रतिमा ऊपर नहीं उठती। विरोध से नाश होता है। इसीलिए जगत् में सदा आशावाद ही पनपा है, उसने ही महान् व्यक्तियों का सृजन किया है। निराशावाद या नकारात्मकता की नींव पर कभी किसी जीवन-प्रासाद का निर्माण नहीं हुआ।
इस अवतरण का सर्वथा उपयुक्त शीर्षक हो सकता है
गद्यांश का उपर्युक्त शीर्षक आशावादी और निराशावादी है।