Free Practice Questions for Path-bodhan in Hindi

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Question 61:

निम्नलिखित जानकारी का अध्ययन कीजिए और नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।

शीलयुक्त व्यवहार मनुष्य की प्रकृति और व्यक्तित्व को उद्घाटित करता है। उत्तम, प्रशंसनीय और पवित्र आचरण ही शील है। शीलयुक्त व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर है। इससे मनुष्य की ख्याति बढ़ती है। शीलवान व्यक्ति सबका हृदय जीत लेता है। शीलयुक्त व्यवहार से कटुता दूर भागती है। इससे आशंका और संदेह की स्थितियाँ कभी उत्पन्न नहीं होती। इससे ऐसे सुखद वातावरण का सृजन होता है, जिसमें सभी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। शीलवान व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों को सुप्रभावित करता है। शील इतना प्रभुत्वपूर्ण होता है कि किसी कार्य के बिगड़ने की नौबत नहीं आती अधिकारी-अधीनस्थ, शिक्षक-शिक्षार्थी, छोटों-बड़ों आदि सभी के लिए शीलयुक्त व्यवहार समान रूप से आवश्यक है। शिक्षार्थी में यदि शील का अभाव है तो वह अपने शिक्षक से वांछित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। शीलवान अधिकारी या कर्मचारी में आत्मविश्वास की वृद्धि स्वतः ही होने लगती है और साथ ही उनके व्यक्तित्व में शालीनता आ जाती है। इस अमूल्य गुण की उपस्थिति में अधिकारी वर्ग और अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच, शिक्षकगण और विद्यार्थियों के बीच तथा शासक और शासित के बीच मधुर और प्रगाढ़ संबंध स्थापित होते हैं और प्रत्येक वर्ग की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। इस गुण के माध्यम से छोटे-से -छोटा व्यक्ति बड़ों की सहानुभूति अर्जित कर लेता है। शील कोई दुर्लभ और दैवी गुण नहीं है। इस गुण को अर्जित किया जा सकता है। पारिवारिक संस्कार इस गुण को विकसित और विस्तारित करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं।

गद्यांश में रेखांकित अंश की उचित व्याख्या होगी:

Question 62:

निम्नलिखित जानकारी का अध्ययन कीजिए और नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।

शीलयुक्त व्यवहार मनुष्य की प्रकृति और व्यक्तित्व को उद्घाटित करता है। उत्तम, प्रशंसनीय और पवित्र आचरण ही शील है। शीलयुक्त व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर है। इससे मनुष्य की ख्याति बढ़ती है। शीलवान व्यक्ति सबका हृदय जीत लेता है। शीलयुक्त व्यवहार से कटुता दूर भागती है। इससे आशंका और संदेह की स्थितियाँ कभी उत्पन्न नहीं होती। इससे ऐसे सुखद वातावरण का सृजन होता है, जिसमें सभी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। शीलवान व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों को सुप्रभावित करता है। शील इतना प्रभुत्वपूर्ण होता है कि किसी कार्य के बिगड़ने की नौबत नहीं आती अधिकारी-अधीनस्थ, शिक्षक-शिक्षार्थी, छोटों-बड़ों आदि सभी के लिए शीलयुक्त व्यवहार समान रूप से आवश्यक है। शिक्षार्थी में यदि शील का अभाव है तो वह अपने शिक्षक से वांछित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। शीलवान अधिकारी या कर्मचारी में आत्मविश्वास की वृद्धि स्वतः ही होने लगती है और साथ ही उनके व्यक्तित्व में शालीनता आ जाती है। इस अमूल्य गुण की उपस्थिति में अधिकारी वर्ग और अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच, शिक्षकगण और विद्यार्थियों के बीच तथा शासक और शासित के बीच मधुर और प्रगाढ़ संबंध स्थापित होते हैं और प्रत्येक वर्ग की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। इस गुण के माध्यम से छोटे-से -छोटा व्यक्ति बड़ों की सहानुभूति अर्जित कर लेता है। शील कोई दुर्लभ और दैवी गुण नहीं है। इस गुण को अर्जित किया जा सकता है। पारिवारिक संस्कार इस गुण को विकसित और विस्तारित करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं।

निम्नलिखित में से कौन-सा कथन शील के संबंध गें गलत है?

Question 63:

दिये गये गद्याश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के विकल्प छाँटिए :

आदिम आर्य घुमक्कड़ ही थे। यहाँ से वहाँ वे घूमते ही रहते थे। घूमते भटकते ही वे भारत पहुँचे थे। यदि घुमक्कड़ी का बाना उन्होंने न धारण किया होता, यदि वे एक स्थान पर ही रहते, तो आज भारत में उनके वंशज न होते। भगवान बुद्ध घुमक्कड़ थे। भगवान महावीर घुमक्कड़ थे। वर्षाऋ्रतु के कुछ महीनों को छोड़कर एक स्थान में रहना बुद्ध के वश का नहीं था। 35 वर्ष की आयु में उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त किया। 35 वर्ष से 80 वर्ष की आयु तक जब उनकी मृत्यु हुई, 45 वर्ष तक वे निरन्तर घूमते ही रहे। अपने आपको समाज सेवा और धर्म प्रचार में लगाये रहे। अपने शिष्यों से उन्होंने कहा था "चरथ भिक्खवे"' चारिक" है भिक्षुओं! घुमक्कड़ी करो यद्यपि बुद्ध कभी भारत के बाहर नहीं गये किन्तु उनके शिष्यों ने उनके वचनों को सिर आँखों पर लिया और पूर्व में जापान उत्तर में मंगोलिया पश्चिम में मकदूनियाँ और दक्षिण में बाली द्वीप तक धावा मारा। श्रवण महावीर ने स्वच्छन्द विचरण के लिए अपने वस्त्रों तक को त्याग दिया। दिशाओं को उन्होंने अपना अम्बर बना लिया, वैशाली में जन्म लिया, पावा में शरीर त्याग किया। जीवनपर्यन्त घूमते रहे। मानव के कल्याण के लिए मानवों के राह प्रदर्शन के लिये और शंकराचार्य, बारह वर्ष की अवस्था में संन्यास लेकर कभी केरल, कभी मिथिला, कभी कश्मीर और कभी बद्रिकाश्रम में घूमते रहे। कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक समस्त भारत को अपना कर्मक्षेत्र समझा सांस्कृतिक एकता के लिए, समन्वय के लिए, श्रुति धर्म की रक्षा के लिए शंकराचार्य के प्रयत्नों से ही वैदिक धर्म का उत्थान हो सका।

श्रुति धर्म' का क्या अर्थ है ?

Question 64:

दिये गये गद्याश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के विकल्प छाँटिए :

आदिम आर्य घुमक्कड़ ही थे। यहाँ से वहाँ वे घूमते ही रहते थे। घूमते भटकते ही वे भारत पहुँचे थे। यदि घुमक्कड़ी का बाना उन्होंने न धारण किया होता, यदि वे एक स्थान पर ही रहते, तो आज भारत में उनके वंशज न होते। भगवान बुद्ध घुमक्कड़ थे। भगवान महावीर घुमक्कड़ थे। वर्षाऋ्रतु के कुछ महीनों को छोड़कर एक स्थान में रहना बुद्ध के वश का नहीं था। 35 वर्ष की आयु में उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त किया। 35 वर्ष से 80 वर्ष की आयु तक जब उनकी मृत्यु हुई, 45 वर्ष तक वे निरन्तर घूमते ही रहे। अपने आपको समाज सेवा और धर्म प्रचार में लगाये रहे। अपने शिष्यों से उन्होंने कहा था "चरथ भिक्खवे"' चारिक" है भिक्षुओं! घुमक्कड़ी करो यद्यपि बुद्ध कभी भारत के बाहर नहीं गये किन्तु उनके शिष्यों ने उनके वचनों को सिर आँखों पर लिया और पूर्व में जापान उत्तर में मंगोलिया पश्चिम में मकदूनियाँ और दक्षिण में बाली द्वीप तक धावा मारा। श्रवण महावीर ने स्वच्छन्द विचरण के लिए अपने वस्त्रों तक को त्याग दिया। दिशाओं को उन्होंने अपना अम्बर बना लिया, वैशाली में जन्म लिया, पावा में शरीर त्याग किया। जीवनपर्यन्त घूमते रहे। मानव के कल्याण के लिए मानवों के राह प्रदर्शन के लिये और शंकराचार्य, बारह वर्ष की अवस्था में संन्यास लेकर कभी केरल, कभी मिथिला, कभी कश्मीर और कभी बद्रिकाश्रम में घूमते रहे। कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक समस्त भारत को अपना कर्मक्षेत्र समझा सांस्कृतिक एकता के लिए, समन्वय के लिए, श्रुति धर्म की रक्षा के लिए शंकराचार्य के प्रयत्नों से ही वैदिक धर्म का उत्थान हो सका।

महात्मा बुद्ध ने जब बुद्धत्व प्राप्त किया, तब उनकी अवस्था कितनी थी?

Question 65:

दिये गये गद्याश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के विकल्प छाँटिए :

आदिम आर्य घुमक्कड़ ही थे। यहाँ से वहाँ वे घूमते ही रहते थे। घूमते भटकते ही वे भारत पहुँचे थे। यदि घुमक्कड़ी का बाना उन्होंने न धारण किया होता, यदि वे एक स्थान पर ही रहते, तो आज भारत में उनके वंशज न होते। भगवान बुद्ध घुमक्कड़ थे। भगवान महावीर घुमक्कड़ थे। वर्षाऋ्रतु के कुछ महीनों को छोड़कर एक स्थान में रहना बुद्ध के वश का नहीं था। 35 वर्ष की आयु में उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त किया। 35 वर्ष से 80 वर्ष की आयु तक जब उनकी मृत्यु हुई, 45 वर्ष तक वे निरन्तर घूमते ही रहे। अपने आपको समाज सेवा और धर्म प्रचार में लगाये रहे। अपने शिष्यों से उन्होंने कहा था "चरथ भिक्खवे"' चारिक" है भिक्षुओं! घुमक्कड़ी करो यद्यपि बुद्ध कभी भारत के बाहर नहीं गये किन्तु उनके शिष्यों ने उनके वचनों को सिर आँखों पर लिया और पूर्व में जापान उत्तर में मंगोलिया पश्चिम में मकदूनियाँ और दक्षिण में बाली द्वीप तक धावा मारा। श्रवण महावीर ने स्वच्छन्द विचरण के लिए अपने वस्त्रों तक को त्याग दिया। दिशाओं को उन्होंने अपना अम्बर बना लिया, वैशाली में जन्म लिया, पावा में शरीर त्याग किया। जीवनपर्यन्त घूमते रहे। मानव के कल्याण के लिए मानवों के राह प्रदर्शन के लिये और शंकराचार्य, बारह वर्ष की अवस्था में संन्यास लेकर कभी केरल, कभी मिथिला, कभी कश्मीर और कभी बद्रिकाश्रम में घूमते रहे। कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक समस्त भारत को अपना कर्मक्षेत्र समझा सांस्कृतिक एकता के लिए, समन्वय के लिए, श्रुति धर्म की रक्षा के लिए शंकराचार्य के प्रयत्नों से ही वैदिक धर्म का उत्थान हो सका।

स्वच्छन्द में कौन-सी सन्धि है ?

Question 66:

दिये गये गद्याश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के विकल्प छाँटिए :

आदिम आर्य घुमक्कड़ ही थे। यहाँ से वहाँ वे घूमते ही रहते थे। घूमते भटकते ही वे भारत पहुँचे थे। यदि घुमक्कड़ी का बाना उन्होंने न धारण किया होता, यदि वे एक स्थान पर ही रहते, तो आज भारत में उनके वंशज न होते। भगवान बुद्ध घुमक्कड़ थे। भगवान महावीर घुमक्कड़ थे। वर्षाऋ्रतु के कुछ महीनों को छोड़कर एक स्थान में रहना बुद्ध के वश का नहीं था। 35 वर्ष की आयु में उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त किया। 35 वर्ष से 80 वर्ष की आयु तक जब उनकी मृत्यु हुई, 45 वर्ष तक वे निरन्तर घूमते ही रहे। अपने आपको समाज सेवा और धर्म प्रचार में लगाये रहे। अपने शिष्यों से उन्होंने कहा था "चरथ भिक्खवे"' चारिक" है भिक्षुओं! घुमक्कड़ी करो यद्यपि बुद्ध कभी भारत के बाहर नहीं गये किन्तु उनके शिष्यों ने उनके वचनों को सिर आँखों पर लिया और पूर्व में जापान उत्तर में मंगोलिया पश्चिम में मकदूनियाँ और दक्षिण में बाली द्वीप तक धावा मारा। श्रवण महावीर ने स्वच्छन्द विचरण के लिए अपने वस्त्रों तक को त्याग दिया। दिशाओं को उन्होंने अपना अम्बर बना लिया, वैशाली में जन्म लिया, पावा में शरीर त्याग किया। जीवनपर्यन्त घूमते रहे। मानव के कल्याण के लिए मानवों के राह प्रदर्शन के लिये और शंकराचार्य, बारह वर्ष की अवस्था में संन्यास लेकर कभी केरल, कभी मिथिला, कभी कश्मीर और कभी बद्रिकाश्रम में घूमते रहे। कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक समस्त भारत को अपना कर्मक्षेत्र समझा सांस्कृतिक एकता के लिए, समन्वय के लिए, श्रुति धर्म की रक्षा के लिए शंकराचार्य के प्रयत्नों से ही वैदिक धर्म का उत्थान हो सका।

महावीर स्वामी का जन्म कहाँ हुआ था ?

Question 67:

दिये गये गद्याश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के विकल्प छाँटिए :

आदिम आर्य घुमक्कड़ ही थे। यहाँ से वहाँ वे घूमते ही रहते थे। घूमते भटकते ही वे भारत पहुँचे थे। यदि घुमक्कड़ी का बाना उन्होंने न धारण किया होता, यदि वे एक स्थान पर ही रहते, तो आज भारत में उनके वंशज न होते। भगवान बुद्ध घुमक्कड़ थे। भगवान महावीर घुमक्कड़ थे। वर्षाऋ्रतु के कुछ महीनों को छोड़कर एक स्थान में रहना बुद्ध के वश का नहीं था। 35 वर्ष की आयु में उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त किया। 35 वर्ष से 80 वर्ष की आयु तक जब उनकी मृत्यु हुई, 45 वर्ष तक वे निरन्तर घूमते ही रहे। अपने आपको समाज सेवा और धर्म प्रचार में लगाये रहे। अपने शिष्यों से उन्होंने कहा था "चरथ भिक्खवे"' चारिक" है भिक्षुओं! घुमक्कड़ी करो यद्यपि बुद्ध कभी भारत के बाहर नहीं गये किन्तु उनके शिष्यों ने उनके वचनों को सिर आँखों पर लिया और पूर्व में जापान उत्तर में मंगोलिया पश्चिम में मकदूनियाँ और दक्षिण में बाली द्वीप तक धावा मारा। श्रवण महावीर ने स्वच्छन्द विचरण के लिए अपने वस्त्रों तक को त्याग दिया। दिशाओं को उन्होंने अपना अम्बर बना लिया, वैशाली में जन्म लिया, पावा में शरीर त्याग किया। जीवनपर्यन्त घूमते रहे। मानव के कल्याण के लिए मानवों के राह प्रदर्शन के लिये और शंकराचार्य, बारह वर्ष की अवस्था में संन्यास लेकर कभी केरल, कभी मिथिला, कभी कश्मीर और कभी बद्रिकाश्रम में घूमते रहे। कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक समस्त भारत को अपना कर्मक्षेत्र समझा सांस्कृतिक एकता के लिए, समन्वय के लिए, श्रुति धर्म की रक्षा के लिए शंकराचार्य के प्रयत्नों से ही वैदिक धर्म का उत्थान हो सका।

घुमक्कड़ शब्द में कौन-सा प्रत्यय है ?

Question 68:

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर के लिये दिये गये चार विकल्पों में से उपयुक्त विकल्प का चयन कीजिए-

गांधीवाद में राजनीतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों का समन्वय मिलता है। यही इस वाद की विशेषता है। आज संसार में जितने भी वाद प्रचलित हैं वे प्रायः राजनीतिक क्षेत्र में सीमित हो चुके हैं। आत्मा से उनका सम्बंध-विच्छेद होकर केवल बाह्य संसार तक उनका प्रसार रह गया है। मन की निर्मलता और ईश्वर निष्ठा से आत्मा को शुद्ध करना गांधीवाद की प्रथम आवश्यकता है। ऐसा करने से निःस्वार्थ बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य सच्चे अर्थों में जन सेवा के लिए तत्पर हो जाता है। गांधीवाद में साम्प्रदायिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। इसी समस्या को हल करने के लिए गांधी जी ने अपने जीवन का बलिदान कर दिया था।

उपर्युक्त गद्यांश में गांधीवाद का आधार किसे बताया गया है ?

Question 69:

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर के लिये दिये गये चार विकल्पों में से उपयुक्त विकल्प का चयन कीजिए-

गांधीवाद में राजनीतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों का समन्वय मिलता है। यही इस वाद की विशेषता है। आज संसार में जितने भी वाद प्रचलित हैं वे प्रायः राजनीतिक क्षेत्र में सीमित हो चुके हैं। आत्मा से उनका सम्बंध-विच्छेद होकर केवल बाह्य संसार तक उनका प्रसार रह गया है। मन की निर्मलता और ईश्वर निष्ठा से आत्मा को शुद्ध करना गांधीवाद की प्रथम आवश्यकता है। ऐसा करने से निःस्वार्थ बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य सच्चे अर्थों में जन सेवा के लिए तत्पर हो जाता है। गांधीवाद में साम्प्रदायिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। इसी समस्या को हल करने के लिए गांधी जी ने अपने जीवन का बलिदान कर दिया था।

उपर्युक्त गद्यांश के आधार पर बताइये कि संसार के सारे वाद सीमित हैं

Question 70:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

मनुष्य को निष्काम भाव से सफलता - असफलता की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना है। आशा या निराशा के चक्र में फँसे बिना उसे निरंतर कर्तव्यरत रहना है। किसी भी कर्तव्य की पूर्णता पर सफलता अथवा असफलता प्राप्त होती है। असफल व्यक्ति निराश हो जाता है, किंतु मनीषियों ने असफलता को भी सफलता की कुंजी कहा है। असफल व्यक्ति अनुभव की संपत्ति अर्जित करता है, जो उसके भावी जीवन का निर्माण करती है। जीवन में अनेक बार ऐसा होता है कि हम जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए परिश्रम करते हैं, वह पूरा नहीं होता। ऐसे अवसर पर सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया - सा लगता है और हम निराश होकर चुपचाप बैठ जाते हैं। उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोबारा प्रयत्न नहीं करते। ऐसे व्यक्ति का जीवन धीरे - धीरे बोझ बन जाता है। निराशा का अंधकार न केवल उसकी कर्म - शक्ति, वरन् उसके समस्त जीवन को ही ढक लेता है । निराशा की गहनता के कारण लोग कभी - कभी आत्महत्या तक कर बैठते हैं। मनुष्य का जीवन धारण करके कर्म - पथ से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। विघ्न बाधाओं की, सफलता असफलता की तथा हानि-लाभ की चिंता किए बिना कर्तव्य के मार्ग पर चलते रहने में जो आनंद एवं उत्साह है, उसमें ही जीवन की सार्थकता है। 

जीवन की सार्थकता किसमें है ?

Question 71:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

मनुष्य को निष्काम भाव से सफलता - असफलता की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना है। आशा या निराशा के चक्र में फँसे बिना उसे निरंतर कर्तव्यरत रहना है। किसी भी कर्तव्य की पूर्णता पर सफलता अथवा असफलता प्राप्त होती है। असफल व्यक्ति निराश हो जाता है, किंतु मनीषियों ने असफलता को भी सफलता की कुंजी कहा है। असफल व्यक्ति अनुभव की संपत्ति अर्जित करता है, जो उसके भावी जीवन का निर्माण करती है। जीवन में अनेक बार ऐसा होता है कि हम जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए परिश्रम करते हैं, वह पूरा नहीं होता। ऐसे अवसर पर सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया - सा लगता है और हम निराश होकर चुपचाप बैठ जाते हैं। उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोबारा प्रयत्न नहीं करते। ऐसे व्यक्ति का जीवन धीरे - धीरे बोझ बन जाता है। निराशा का अंधकार न केवल उसकी कर्म - शक्ति, वरन् उसके समस्त जीवन को ही ढक लेता है । निराशा की गहनता के कारण लोग कभी - कभी आत्महत्या तक कर बैठते हैं। मनुष्य का जीवन धारण करके कर्म - पथ से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। विघ्न बाधाओं की, सफलता असफलता - - की तथा हानि-लाभ की चिंता किए बिना कर्तव्य के मार्ग पर चलते रहने में जो आनंद एवं उत्साह है, उसमें ही जीवन की सार्थकता है। 

कैसे व्यक्तियों का जीवन धीरे- धीरे बोझ बन जाता है ?

Question 72:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

मनुष्य को निष्काम भाव से सफलता - असफलता की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना है। आशा या निराशा के चक्र में फँसे बिना उसे निरंतर कर्तव्यरत रहना है। किसी भी कर्तव्य की पूर्णता पर सफलता अथवा असफलता प्राप्त होती है। असफल व्यक्ति निराश हो जाता है, किंतु मनीषियों ने असफलता को भी सफलता की कुंजी कहा है। असफल व्यक्ति अनुभव की संपत्ति अर्जित करता है, जो उसके भावी जीवन का निर्माण करती है। जीवन में अनेक बार ऐसा होता है कि हम जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए परिश्रम करते हैं, वह पूरा नहीं होता। ऐसे अवसर पर सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया - सा लगता है और हम निराश होकर चुपचाप बैठ जाते हैं। उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोबारा प्रयत्न नहीं करते। ऐसे व्यक्ति का जीवन धीरे - धीरे बोझ बन जाता है। निराशा का अंधकार न केवल उसकी कर्म - शक्ति, वरन् उसके समस्त जीवन को ही ढक लेता है । निराशा की गहनता के कारण लोग कभी - कभी आत्महत्या तक कर बैठते हैं। मनुष्य का जीवन धारण करके कर्म - पथ से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। विघ्न बाधाओं की, सफलता असफलता की तथा हानि-लाभ की चिंता किए बिना कर्तव्य के मार्ग पर चलते रहने में जो आनंद एवं उत्साह है, उसमें ही जीवन की सार्थकता है। 

मनीषियों ने सफलता की कुंजी किसे कहा है ?

Question 73:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

मनुष्य को निष्काम भाव से सफलता - असफलता की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना है। आशा या निराशा के चक्र में फँसे बिना उसे निरंतर कर्तव्यरत रहना है। किसी भी कर्तव्य की पूर्णता पर सफलता अथवा असफलता प्राप्त होती है। असफल व्यक्ति निराश हो जाता है, किंतु मनीषियों ने असफलता को भी सफलता की कुंजी कहा है। असफल व्यक्ति अनुभव की संपत्ति अर्जित करता है, जो उसके भावी जीवन का निर्माण करती है। जीवन में अनेक बार ऐसा होता है कि हम जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए परिश्रम करते हैं, वह पूरा नहीं होता। ऐसे अवसर पर सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया - सा लगता है और हम निराश होकर चुपचाप बैठ जाते हैं। उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोबारा प्रयत्न नहीं करते। ऐसे व्यक्ति का जीवन धीरे - धीरे बोझ बन जाता है। निराशा का अंधकार न केवल उसकी कर्म - शक्ति, वरन् उसके समस्त जीवन को ही ढक लेता है । निराशा की गहनता के कारण लोग कभी - कभी आत्महत्या तक कर बैठते हैं। मनुष्य का जीवन धारण करके कर्म - पथ से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। विघ्न बाधाओं की, सफलता असफलता की तथा हानि-लाभ की चिंता किए बिना कर्तव्य के मार्ग पर चलते रहने में जो आनंद एवं उत्साह है, उसमें ही जीवन की सार्थकता है। 

मनुष्य को किस प्रकार कर्तव्य पालन करना चाहिए ?

Question 74:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

मनुष्य को निष्काम भाव से सफलता - असफलता की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना है। आशा या निराशा के चक्र में फँसे बिना उसे निरंतर कर्तव्यरत रहना है। किसी भी कर्तव्य की पूर्णता पर सफलता अथवा असफलता प्राप्त होती है। असफल व्यक्ति निराश हो जाता है, किंतु मनीषियों ने असफलता को भी सफलता की कुंजी कहा है। असफल व्यक्ति अनुभव की संपत्ति अर्जित करता है, जो उसके भावी जीवन का निर्माण करती है। जीवन में अनेक बार ऐसा होता है कि हम जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए परिश्रम करते हैं, वह पूरा नहीं होता। ऐसे अवसर पर सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया - सा लगता है और हम निराश होकर चुपचाप बैठ जाते हैं। उद्देश्य की पूर्ति के लिए दोबारा प्रयत्न नहीं करते। ऐसे व्यक्ति का जीवन धीरे - धीरे बोझ बन जाता है। निराशा का अंधकार न केवल उसकी कर्म - शक्ति, वरन् उसके समस्त जीवन को ही ढक लेता है । निराशा की गहनता के कारण लोग कभी - कभी आत्महत्या तक कर बैठते हैं। मनुष्य का जीवन धारण करके कर्म - पथ से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। विघ्न बाधाओं की, सफलता असफलता - - की तथा हानि-लाभ की चिंता किए बिना कर्तव्य के मार्ग पर चलते रहने में जो आनंद एवं उत्साह है, उसमें ही जीवन की सार्थकता है। 

असफल व्यक्ति क्या अर्जित करता है?

Question 75:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के  उत्तर दीजिए : 

भारतीय मनीषी हमेशा ही इच्छा और अनिच्छा के बारे में सोचता रहा है। आज जो कुछ हम हैं उसे एक लालसा में सिमटाया जा सकता है। यानी जो कुछ भी हम हैं वह सब अपनी इच्छा के कारण से हैं। यदि हम दुःखी हैं, यदि हम दासता में हैं, यदि हम अज्ञानी हैं, यदि हम अंधकार में डूबे हैं, यदि जीवन एक लंबी मृत्यु है तो केवल इच्छा के कारण से ही है क्यों है यह दुःख? क्योंकि हमारी इच्छा पूरी नहीं हुई। इसलिए यदि आपको कोई इच्छा नहीं है तो आप निराश कैसे होंगे? यदि कहीं आप निराश होना चाहते हैं तो और अधिक इच्छा करें, यदि आप और दुःखी होना चाहते हैं तो अधिक अपेक्षा करें, अधिक लालसा करें और अधिक आकांक्षा करें, इससे आप और अधिक दुःखी हो ही जाएँगे। यदि आप सुखी होना चाहते हैं तो कोई इच्छा न करें। यही आंतरिक जगत में काम करने का गणित है। इच्छा ही दुःख को उत्पन्न करती है।

मानव के लिए जीवन एक लंबी मृत्यु कब बन जाता है ?

Question 76:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के  उत्तर दीजिए : 

भारतीय मनीषी हमेशा ही इच्छा और अनिच्छा के बारे में सोचता रहा है। आज जो कुछ हम हैं उसे एक लालसा में सिमटाया जा सकता है। यानी जो कुछ भी हम हैं वह सब अपनी इच्छा के कारण से हैं। यदि हम दुःखी हैं, यदि हम दासता में हैं, यदि हम अज्ञानी हैं, यदि हम अंधकार में डूबे हैं, यदि जीवन एक लंबी मृत्यु है तो केवल इच्छा के कारण से ही है क्यों है यह दुःख? क्योंकि हमारी इच्छा पूरी नहीं हुई। इसलिए यदि आपको कोई इच्छा नहीं है तो आप निराश कैसे होंगे? यदि कहीं आप निराश होना चाहते हैं तो और अधिक इच्छा करें, यदि आप और दुःखी होना चाहते हैं तो अधिक अपेक्षा करें, अधिक लालसा करें और अधिक आकांक्षा करें, इससे आप और अधिक दुःखी हो ही जाएँगे। यदि आप सुखी होना चाहते हैं तो कोई इच्छा न करें। यही आंतरिक जगत में काम करने का गणित है। इच्छा ही दुःख को उत्पन्न करती है।

इच्छा का जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है ?

Question 77:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के  उत्तर दीजिए : 

भारतीय मनीषी हमेशा ही इच्छा और अनिच्छा के बारे में सोचता रहा है। आज जो कुछ हम हैं उसे एक लालसा में सिमटाया जा सकता है। यानी जो कुछ भी हम हैं वह सब अपनी इच्छा के कारण से हैं। यदि हम दुःखी हैं, यदि हम दासता में हैं, यदि हम अज्ञानी हैं, यदि हम अंधकार में डूबे हैं, यदि जीवन एक लंबी मृत्यु है तो केवल इच्छा के कारण से ही है क्यों है यह दुःख? क्योंकि हमारी इच्छा पूरी नहीं हुई। इसलिए यदि आपको कोई इच्छा नहीं है तो आप निराश कैसे होंगे? यदि कहीं आप निराश होना चाहते हैं तो और अधिक इच्छा करें, यदि आप और दुःखी होना चाहते हैं तो अधिक अपेक्षा करें, अधिक लालसा करें और अधिक आकांक्षा करें, इससे आप और अधिक दुःखी हो ही जाएँगे। यदि आप सुखी होना चाहते हैं तो कोई इच्छा न करें। यही आंतरिक जगत में काम करने का गणित है। इच्छा ही दुःख को उत्पन्न करती है।

भारतीय मनीषी के चिंतन का विषय क्या है ?

Question 78:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के  उत्तर दीजिए : 

भारतीय मनीषी हमेशा ही इच्छा और अनिच्छा के बारे में सोचता रहा है। आज जो कुछ हम हैं उसे एक लालसा में सिमटाया जा सकता है। यानी जो कुछ भी हम हैं वह सब अपनी इच्छा के कारण से हैं। यदि हम दुःखी हैं, यदि हम दासता में हैं, यदि हम अज्ञानी हैं, यदि हम अंधकार में डूबे हैं, यदि जीवन एक लंबी मृत्यु है तो केवल इच्छा के कारण से ही है क्यों है यह दुःख? क्योंकि हमारी इच्छा पूरी नहीं हुई। इसलिए यदि आपको कोई इच्छा नहीं है तो आप निराश कैसे होंगे? यदि कहीं आप निराश होना चाहते हैं तो और अधिक इच्छा करें, यदि आप और दुःखी होना चाहते हैं तो अधिक अपेक्षा करें, अधिक लालसा करें और अधिक आकांक्षा करें, इससे आप और अधिक दुःखी हो ही जाएँगे। यदि आप सुखी होना चाहते हैं तो कोई इच्छा न करें। यही आंतरिक जगत में काम करने का गणित है। इच्छा ही दुःख को उत्पन्न करती है।

लेखक ने आंतरिक जगत में काम करने का गणित किसे कहा है ?

Question 79:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

सच्चा उत्साह वही होता है जो मनुष्य को कार्य करने के लिए प्रेरणा देता है। मनुष्य किसी भी कारणवश जब किसी के कष्ट को दूर करने का संकल्प करता है, तब जिस सुख को वह अनुभव करता है, वह सुख विशेष रूप से प्रेरणा देने वाला होता है। जिस भी कार्य को करने के लिए मनुष्य में कष्ट, दुःख या हानि को सहन करने की ताकत आती है, उन सबसे उत्पन्न आनंद ही उत्साह कहलाता है। उदाहरण के लिए दान देने वाला व्यक्ति निश्चय ही अपने भीतर एक विशेष साहस रखता है और वह है धन-त्याग का साहस। यही त्याग यदि मनुष्य प्रसन्नता के साथ करता है तो उसे उत्साह से किया गया दान कहा जाएगा। उत्साह आनंद और साहस का मिला-जुला रूप है। उत्साह में किसी-न- किसी वस्तु पर ध्यान अवश्य केंद्रित होता है। वह चाहे कर्म पर, चाहे कर्म के फल पर और चाहे व्यक्ति या वस्तु पर हो। इन्हीं के आधार पर कर्म करने में आनंद मिलता है। कर्म-भावना से उत्पन्न आनंद का अनुभव केवल सच्चे वीर ही कर सकते हैं, क्योंकि उनमें साहस की अधिकता होती है। सामान्य व्यक्ति कार्य पूरा हो जाने पर जिस आनंद का अनुभव करता है, सच्चा वीर कार्य प्रारंभ होने पर ही उसका अनुभव कर लेता है। आलस्य उत्साह का सबसे बड़ा शत्रु है। जो व्यक्ति आलस्य से भरा होगा, उसमें काम करने के प्रति उत्साह कभी उत्पन्न नहीं हो सकता। उत्साही व्यक्ति असफल होने पर भी कार्य करता रहता है। उत्साही व्यक्ति सदा दृढ़-निश्चयी होता है।

उत्साह के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट है -

Question 80:

अनुच्छेद को पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

सच्चा उत्साह वही होता है जो मनुष्य को कार्य करने के लिए प्रेरणा देता है। मनुष्य किसी भी कारणवश जब किसी के कष्ट को दूर करने का संकल्प करता है, तब जिस सुख को वह अनुभव करता है, वह सुख विशेष रूप से प्रेरणा देने वाला होता है। जिस भी कार्य को करने के लिए मनुष्य में कष्ट, दुःख या हानि को सहन करने की ताकत आती है, उन सबसे उत्पन्न आनंद ही उत्साह कहलाता है। उदाहरण के लिए दान देने वाला व्यक्ति निश्चय ही अपने भीतर एक विशेष साहस रखता है और वह है धन-त्याग का साहस। यही त्याग यदि मनुष्य प्रसन्नता के साथ करता है तो उसे उत्साह से किया गया दान कहा जाएगा। उत्साह आनंद और साहस का मिला-जुला रूप है। उत्साह में किसी-न- किसी वस्तु पर ध्यान अवश्य केंद्रित होता है। वह चाहे कर्म पर, चाहे कर्म के फल पर और चाहे व्यक्ति या वस्तु पर हो। इन्हीं के आधार पर कर्म करने में आनंद मिलता है। कर्म-भावना से उत्पन्न आनंद का अनुभव केवल सच्चे वीर ही कर सकते हैं, क्योंकि उनमें साहस की अधिकता होती है। सामान्य व्यक्ति कार्य पूरा हो जाने पर जिस आनंद का अनुभव करता है, सच्चा वीर कार्य प्रारंभ होने पर ही उसका अनुभव कर लेता है। आलस्य उत्साह का सबसे बड़ा शत्रु है। जो व्यक्ति आलस्य से भरा होगा, उसमें काम करने के प्रति उत्साह कभी उत्पन्न नहीं हो सकता। उत्साही व्यक्ति असफल होने पर भी कार्य करता रहता है। उत्साही व्यक्ति सदा दृढ़-निश्चयी होता है।

सच्चा उत्साह वही होता है जो मनुष्य को कार्य करने के लिए प्रेरणा देता है।' रेखांकित उपवाक्य का प्रकार है -