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निर्देश : निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए तथा उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
अहिंसात्मक अभ्यास का मार्ग ही अलग है। फौज में प्रतिदिन कवायद, कसरत, क्रूरतापूर्ण शिकार इत्यादि कराए जाते हैं। अहिंसात्मक अभ्यास इससे बिलकुल भिन्न है। उसका साधन, यदि एक शब्द में कहना चाहें, तो बस, संयम है। यहाँ संयम व्यापक अर्थ में उन तमाम नियमों के लिए व्यवहृत किया गया है, जिनका जिक्र हिन्दुओं के तथा दूसरे धर्मो के धर्मग्रन्थों में पाया जाता है। ये साधारण सदाचार के नियम सख्ती से पालन करके सीखे जाते हैं। इन सब नियमों का झुकाव अहिंसा और सत्य की ओर ही होता है। गांधीजी ने बार-बार लिखा है कि ईश्वर पर विश्वास इसका एक बहुत बड़ा सहायक होता है। यदि इस अहिंसात्मक प्रवृत्ति को जागृत और पुष्ट करने में समय लगाया जाए, बचपन से ही अभ्यास कराया जाए और इस पर पूरा ध्यान दिया जाए, सो निर्भयता इत्यादि जो इसके मुख्य बाह्य रूप देखने में आते हैं, अवश्य ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यह कहना कि यह मनुष्य के लिए सम्भव नहीं, बेबुनियाद बात है।
उपर्युक्त गद्यांश का सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक है -
उपर्युक्त गद्यांश का सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक है - सदाचार का महत्त्व।
निर्देश : निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए तथा उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
अहिंसात्मक अभ्यास का मार्ग ही अलग है। फौज में प्रतिदिन कवायद, कसरत, क्रूरतापूर्ण शिकार इत्यादि कराए जाते हैं। अहिंसात्मक अभ्यास इससे बिलकुल भिन्न है। उसका साधन, यदि एक शब्द में कहना चाहें, तो बस, संयम है। यहाँ संयम व्यापक अर्थ में उन तमाम नियमों के लिए व्यवहृत किया गया है, जिनका जिक्र हिन्दुओं के तथा दूसरे धर्मो के धर्मग्रन्थों में पाया जाता है। ये साधारण सदाचार के नियम सख्ती से पालन करके सीखे जाते हैं। इन सब नियमों का झुकाव अहिंसा और सत्य की ओर ही होता है। गांधीजी ने बार-बार लिखा है कि ईश्वर पर विश्वास इसका एक बहुत बड़ा सहायक होता है। यदि इस अहिंसात्मक प्रवृत्ति को जागृत और पुष्ट करने में समय लगाया जाए, बचपन से ही अभ्यास कराया जाए और इस पर पूरा ध्यान दिया जाए, सो निर्भयता इत्यादि जो इसके मुख्य बाह्य रूप देखने में आते हैं, अवश्य ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यह कहना कि यह मनुष्य के लिए सम्भव नहीं, बेबुनियाद बात है।
‘व्यवहृत' शब्द का पर्याय है -
‘व्यवहृत' शब्द का पर्याय है - आचरित।
महत्त्वपूर्ण बिंदु -
अन्य विकल्प -
अतिरिक्त बिंदु -
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अहिंसात्मक अभ्यास का मार्ग ही अलग है। फौज में प्रतिदिन कवायद, कसरत, क्रूरतापूर्ण शिकार इत्यादि कराए जाते हैं। अहिंसात्मक अभ्यास इससे बिलकुल भिन्न है। उसका साधन, यदि एक शब्द में कहना चाहें, तो बस, संयम है। यहाँ संयम व्यापक अर्थ में उन तमाम नियमों के लिए व्यवहृत किया गया है, जिनका जिक्र हिन्दुओं के तथा दूसरे धर्मो के धर्मग्रन्थों में पाया जाता है। ये साधारण सदाचार के नियम सख्ती से पालन करके सीखे जाते हैं। इन सब नियमों का झुकाव अहिंसा और सत्य की ओर ही होता है। गांधीजी ने बार-बार लिखा है कि ईश्वर पर विश्वास इसका एक बहुत बड़ा सहायक होता है। यदि इस अहिंसात्मक प्रवृत्ति को जागृत और पुष्ट करने में समय लगाया जाए, बचपन से ही अभ्यास कराया जाए और इस पर पूरा ध्यान दिया जाए, सो निर्भयता इत्यादि जो इसके मुख्य बाह्य रूप देखने में आते हैं, अवश्य ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यह कहना कि यह मनुष्य के लिए सम्भव नहीं, बेबुनियाद बात है।
धर्मग्रंथ में सर्वाधिक बल दिया गया है -
धर्मग्रंथ में सर्वाधिक बल दिया गया है - सदाचार के नियमों पर। इन सब नियमों का झुकाव अहिंसा और सत्य की ओर ही होता है। गांधीजी ने बार-बार लिखा है कि ईश्वर पर विश्वास इसका एक बहुत बड़ा सहायक होता है।
निर्देश : निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए तथा उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
अहिंसात्मक अभ्यास का मार्ग ही अलग है। फौज में प्रतिदिन कवायद, कसरत, क्रूरतापूर्ण शिकार इत्यादि कराए जाते हैं। अहिंसात्मक अभ्यास इससे बिलकुल भिन्न है। उसका साधन, यदि एक शब्द में कहना चाहें, तो बस, संयम है। यहाँ संयम व्यापक अर्थ में उन तमाम नियमों के लिए व्यवहृत किया गया है, जिनका जिक्र हिन्दुओं के तथा दूसरे धर्मो के धर्मग्रन्थों में पाया जाता है। ये साधारण सदाचार के नियम सख्ती से पालन करके सीखे जाते हैं। इन सब नियमों का झुकाव अहिंसा और सत्य की ओर ही होता है। गांधीजी ने बार-बार लिखा है कि ईश्वर पर विश्वास इसका एक बहुत बड़ा सहायक होता है। यदि इस अहिंसात्मक प्रवृत्ति को जागृत और पुष्ट करने में समय लगाया जाए, बचपन से ही अभ्यास कराया जाए और इस पर पूरा ध्यान दिया जाए, सो निर्भयता इत्यादि जो इसके मुख्य बाह्य रूप देखने में आते हैं, अवश्य ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यह कहना कि यह मनुष्य के लिए सम्भव नहीं, बेबुनियाद बात है।
निर्भयता आदि गुणों को सीखने के लिए आवश्यक है
निर्भयता आदि गुणों को सीखने के लिए आवश्यक है बचपन से ही अहिंसात्मक प्रवृत्ति का अभ्यास।
निर्देश : निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए तथा उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
अहिंसात्मक अभ्यास का मार्ग ही अलग है। फौज में प्रतिदिन कवायद, कसरत, क्रूरतापूर्ण शिकार इत्यादि कराए जाते हैं। अहिंसात्मक अभ्यास इससे बिलकुल भिन्न है। उसका साधन, यदि एक शब्द में कहना चाहें, तो बस, संयम है। यहाँ संयम व्यापक अर्थ में उन तमाम नियमों के लिए व्यवहृत किया गया है, जिनका जिक्र हिन्दुओं के तथा दूसरे धर्मो के धर्मग्रन्थों में पाया जाता है। ये साधारण सदाचार के नियम सख्ती से पालन करके सीखे जाते हैं। इन सब नियमों का झुकाव अहिंसा और सत्य की ओर ही होता है। गांधीजी ने बार-बार लिखा है कि ईश्वर पर विश्वास इसका एक बहुत बड़ा सहायक होता है। यदि इस अहिंसात्मक प्रवृत्ति को जागृत और पुष्ट करने में समय लगाया जाए, बचपन से ही अभ्यास कराया जाए और इस पर पूरा ध्यान दिया जाए, सो निर्भयता इत्यादि जो इसके मुख्य बाह्य रूप देखने में आते हैं, अवश्य ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यह कहना कि यह मनुष्य के लिए सम्भव नहीं, बेबुनियाद बात है।
उक्त अनुच्छेद में फौजी की गतिविधियों का इसलिए उल्लेख किया गया है कि
उक्त अनुच्छेद में फौजी की गतिविधियों का इसलिए उल्लेख किया गया है कि अहिंसात्मक अभ्यास की उससे पृथकता प्रतिपादित की जा सके।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न संख्या के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए
"धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है।” “धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। वह केवल अनुभूति में निवास करता है।” “धर्म अन्धविश्वास नहीं है, धर्म अलौकिकता में नहीं है, वह जीवन का अत्यन्त स्वाभाविक तत्त्व है।” मनुष्य में पूर्णता की इच्छा है, अनन्त जीवन की कामना है, ज्ञान और आनन्द प्राप्त करने की चाह है। पूर्णता, ज्ञान और आनन्द ये निचले स्तर पर नहीं हैं, उनकी खोज जीवन के उच्च स्तर पर की जानी चाहिए। जहाँ ऊँचा स्तर आता है, वहीं धर्म का आरम्भ होता है। जीवन का स्तर जहाँ हीन है, इन्द्रियों का आनन्द वहीं अत्यन्त प्रखर होता है।
उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक धर्म का स्वरूप हो सकता है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न संख्या के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए
"धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है।” “धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। वह केवल अनुभूति में निवास करता है।” “धर्म अन्धविश्वास नहीं है, धर्म अलौकिकता में नहीं है, वह जीवन का अत्यन्त स्वाभाविक तत्त्व है।” मनुष्य में पूर्णता की इच्छा है, अनन्त जीवन की कामना है, ज्ञान और आनन्द प्राप्त करने की चाह है। पूर्णता, ज्ञान और आनन्द ये निचले स्तर पर नहीं हैं, उनकी खोज जीवन के उच्च स्तर पर की जानी चाहिए। जहाँ ऊँचा स्तर आता है, वहीं धर्म का आरम्भ होता है। जीवन का स्तर जहाँ हीन है, इन्द्रियों का आनन्द वहीं अत्यन्त प्रखर होता है।
जीवन के उच्च स्तर पर पहुँचाने के लिए पूर्णता, ज्ञान और आनंद की आवश्यकता होती है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न संख्या के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए
"धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है।” “धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। वह केवल अनुभूति में निवास करता है।” “धर्म अन्धविश्वास नहीं है, धर्म अलौकिकता में नहीं है, वह जीवन का अत्यन्त स्वाभाविक तत्त्व है।” मनुष्य में पूर्णता की इच्छा है, अनन्त जीवन की कामना है, ज्ञान और आनन्द प्राप्त करने की चाह है। पूर्णता, ज्ञान और आनन्द ये निचले स्तर पर नहीं हैं, उनकी खोज जीवन के उच्च स्तर पर की जानी चाहिए। जहाँ ऊँचा स्तर आता है, वहीं धर्म का आरम्भ होता है। जीवन का स्तर जहाँ हीन है, इन्द्रियों का आनन्द वहीं अत्यन्त प्रखर होता है।
इन्द्रियों का आनन्द ‘जहाँ जीवन का उच्च स्तर नहीं है’ वहाँ पर प्रखर होता है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न संख्या के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए
"धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है।” “धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। वह केवल अनुभूति में निवास करता है।” “धर्म अन्धविश्वास नहीं है, धर्म अलौकिकता में नहीं है, वह जीवन का अत्यन्त स्वाभाविक तत्त्व है।” मनुष्य में पूर्णता की इच्छा है, अनन्त जीवन की कामना है, ज्ञान और आनन्द प्राप्त करने की चाह है। पूर्णता, ज्ञान और आनन्द ये निचले स्तर पर नहीं हैं, उनकी खोज जीवन के उच्च स्तर पर की जानी चाहिए। जहाँ ऊँचा स्तर आता है, वहीं धर्म का आरम्भ होता है। जीवन का स्तर जहाँ हीन है, इन्द्रियों का आनन्द वहीं अत्यन्त प्रखर होता है।
गद्यांश के अनुसार धर्म अनुभूति में निवास करता है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्न संख्या के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए
"धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है।” “धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। वह केवल अनुभूति में निवास करता है।” “धर्म अन्धविश्वास नहीं है, धर्म अलौकिकता में नहीं है, वह जीवन का अत्यन्त स्वाभाविक तत्त्व है।” मनुष्य में पूर्णता की इच्छा है, अनन्त जीवन की कामना है, ज्ञान और आनन्द प्राप्त करने की चाह है। पूर्णता, ज्ञान और आनन्द ये निचले स्तर पर नहीं हैं, उनकी खोज जीवन के उच्च स्तर पर की जानी चाहिए। जहाँ ऊँचा स्तर आता है, वहीं धर्म का आरम्भ होता है। जीवन का स्तर जहाँ हीन है, इन्द्रियों का आनन्द वहीं अत्यन्त प्रखर होता है।
गद्यांश के अनुसार धर्म मनुष्य में देवत्व का विकास करता है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़ें और प्रश्नों के उत्तर दें।
साहित्योन्नति के साधनों में पुस्तकालयों का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा साहित्य के जीवन की रक्षा, पुष्टि और अभिवृद्धि होती है। पुस्तकालय सभ्यता के इतिहास का जीता-जागता गवाह है। इसी के बल पर वर्तमान भारत को अपने अतीत गौरव पर गर्व है। पुस्तकालय भारत के लिए कोई नई वस्तु नहीं है। लिपि के आविष्कार से आज तक लोग निरंतर पुस्तकों का संग्रह करते रहे हैं। पहले देवालय, विद्यालय और नृपालय इन संग्रहों के प्रमुख स्थान होते थे। इनके अतिरिक्त, विद्वज्जनों के अपने निजी पुस्तकालय भी होते थे। मुद्रणकला के आविष्कार से पूर्व पुस्तकों का संग्रह करना आजकल की तरह सरल बात न थी। आजकल साधारण स्थिति के पुस्तकालय में जितनी संपत्ति लगती है, उतनी इन दिनों कभी-कभी एक पुस्तक की तैयारी में लग 'जाया करती थी। भारत के पुस्तकालय संसार भर में अपना सानी नहीं रखते थे। प्राचीनकाल से मुगल सम्राटों के समय तक यही स्थिति रही चीन, फारस प्रभृति सुदूर स्थित देशों से झुंड के झुंड विद्यानुरागी लंबी यात्राएँ करके भारत आया करते थे।
साहित्य की उन्नति का सबसे अधिक महत्वपूर्ण साधन पुस्तकालय है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़ें और प्रश्नों के उत्तर दें।
साहित्योन्नति के साधनों में पुस्तकालयों का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा साहित्य के जीवन की रक्षा, पुष्टि और अभिवृद्धि होती है। पुस्तकालय सभ्यता के इतिहास का जीता-जागता गवाह है। इसी के बल पर वर्तमान भारत को अपने अतीत गौरव पर गर्व है। पुस्तकालय भारत के लिए कोई नई वस्तु नहीं है। लिपि के आविष्कार से आज तक लोग निरंतर पुस्तकों का संग्रह करते रहे हैं। पहले देवालय, विद्यालय और नृपालय इन संग्रहों के प्रमुख स्थान होते थे। इनके अतिरिक्त, विद्वज्जनों के अपने निजी पुस्तकालय भी होते थे। मुद्रणकला के आविष्कार से पूर्व पुस्तकों का संग्रह करना आजकल की तरह सरल बात न थी। आजकल साधारण स्थिति के पुस्तकालय में जितनी संपत्ति लगती है, उतनी इन दिनों कभी-कभी एक पुस्तक की तैयारी में लग 'जाया करती थी। भारत के पुस्तकालय संसार भर में अपना सानी नहीं रखते थे। प्राचीनकाल से मुगल सम्राटों के समय तक यही स्थिति रही चीन, फारस प्रभृति सुदूर स्थित देशों से झुंड के झुंड विद्यानुरागी लंबी यात्राएँ करके भारत आया करते थे।
गद्यांश में रेखांकित अंश की उचित व्याख्या होगी - पुस्तकालय भारत की प्रसिद्धि के कारण रहे हैं। इन पुस्तकालयों के कारण चीन, फारस प्रभृति सुदूर स्थित देशों से झुंड के झुंड विद्यानुरागी लंबी याताएँ करके भारत आया करते थे। ये भारत के अतीत- गौरव का कारण हैं।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़ें और प्रश्नों के उत्तर दें।
साहित्योन्नति के साधनों में पुस्तकालयों का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा साहित्य के जीवन की रक्षा, पुष्टि और अभिवृद्धि होती है। पुस्तकालय सभ्यता के इतिहास का जीता-जागता गवाह है। इसी के बल पर वर्तमान भारत को अपने अतीत गौरव पर गर्व है। पुस्तकालय भारत के लिए कोई नई वस्तु नहीं है। लिपि के आविष्कार से आज तक लोग निरंतर पुस्तकों का संग्रह करते रहे हैं। पहले देवालय, विद्यालय और नृपालय इन संग्रहों के प्रमुख स्थान होते थे। इनके अतिरिक्त, विद्वज्जनों के अपने निजी पुस्तकालय भी होते थे। मुद्रणकला के आविष्कार से पूर्व पुस्तकों का संग्रह करना आजकल की तरह सरल बात न थी। आजकल साधारण स्थिति के पुस्तकालय में जितनी संपत्ति लगती है, उतनी इन दिनों कभी-कभी एक पुस्तक की तैयारी में लग 'जाया करती थी। भारत के पुस्तकालय संसार भर में अपना सानी नहीं रखते थे। प्राचीनकाल से मुगल सम्राटों के समय तक यही स्थिति रही चीन, फारस प्रभृति सुदूर स्थित देशों से झुंड के झुंड विद्यानुरागी लंबी यात्राएँ करके भारत आया करते थे।
उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक पुस्तकालय और भारत है।
निम्नलिखित जानकारी का अध्ययन कीजिए और नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
अनंत रूपों में प्रकृति हमारे सामने आती है-कहीं मधुर, सुसज्जित या सुंदर रूप में; कही रूखे, बेडौल या कर्कश रूप मे: कहीं भव्य, विशाल या विचित्र रूप में, और कहीं उम्र में; कराल या भयंकर रूप में सच्चे कवि का हृदय उसके उन सब रूपों में लीन होता है, क्योंकि उसके अनुराग का कारण अपना खास सुखभोग नहीं, बल्कि चिरसाहचर्य द्वारा प्रतिष्ठित वासना है। जो केवल प्रफुल्ल प्रसून प्रसाद के सौरभ-संचार, मकरंदलोलुप मुधकर के गुंजार, कोकिलकूजित निकुंज और शीतल सुखस्पर्श समीर की ही चर्चा किया करते हैं, वे विषयी या भोगलिप्सु हैं। इसी प्रकार जो केवल मुक्ताभासहिम बिंदुमंडित मरकताभ शाद्वलजाल, अत्यंत विशाल गिरिशिखर से गिरते जलप्रपात की गंभीर गति से उठी हुई सीकरनीहारिका के बीच विविधवर्ण स्फुरण की विशालता, भव्यता और विचित्रता में ही अपने हृदय के लिए कुछ पाते हैं वे तमाशबीन हैं, सच्चे भावुक या सह्रदय नहीं। प्रकृति के साधारण, असाधारण सब प्रकार के रूपों को रखने वाले वर्णन हमें वाल्मीकि, कालिदास,भवभूति इत्यादि संस्कृत के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। पिछले खेवे के कवियों ने मुक्तक रचना में तो अधिकतर प्राकृतिक वस्तुओं का अलग-अलग उल्लेख केवल उद्दीपन की दृष्टि से किया है। प्रबंध रचना में थोड़ा-बहुत संश्लिष्ट चित्रण किया है, वह प्रकृति की विशेष रूपविभूति को लेकर ही।
उपरोक्त गद्यांश का संक्षेपण होगा - प्रकृति के दो रूप हैं, एक सुंदर दूसरा बेडौल। सच्चे कवि का हृदय दोनों में रमता है। किंतु जो प्रकृति के बाहरी सौन्दर्य का चयन अथवा उसकी रहस्यमयता का उद्घाटन करता रह गया वह कवि नहीं है। प्रकृति के सच्चे रूपों का चित्रण संस्कृत के प्राचीन कवियों में मिलते है प्रबंध काव्यों में उसका संश्लिष्ट वर्णन हुआ है।
निम्नलिखित जानकारी का अध्ययन कीजिए और नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
अनंत रूपों में प्रकृति हमारे सामने आती है-कहीं मधुर, सुसज्जित या सुंदर रूप में; कही रूखे, बेडौल या कर्कश रूप मे: कहीं भव्य, विशाल या विचित्र रूप में, और कहीं उम्र में; कराल या भयंकर रूप में सच्चे कवि का हृदय उसके उन सब रूपों में लीन होता है, क्योंकि उसके अनुराग का कारण अपना खास सुखभोग नहीं, बल्कि चिरसाहचर्य द्वारा प्रतिष्ठित वासना है। जो केवल प्रफुल्ल प्रसून प्रसाद के सौरभ-संचार, मकरंदलोलुप मुधकर के गुंजार, कोकिलकूजित निकुंज और शीतल सुखस्पर्श समीर की ही चर्चा किया करते हैं, वे विषयी या भोगलिप्सु हैं। इसी प्रकार जो केवल मुक्ताभासहिम बिंदुमंडित मरकताभ शाद्वलजाल, अत्यंत विशाल गिरिशिखर से गिरते जलप्रपात की गंभीर गति से उठी हुई सीकरनीहारिका के बीच विविधवर्ण स्फुरण की विशालता, भव्यता और विचित्रता में ही अपने हृदय के लिए कुछ पाते हैं वे तमाशबीन हैं, सच्चे भावुक या सह्रदय नहीं। प्रकृति के साधारण, असाधारण सब प्रकार के रूपों को रखने वाले वर्णन हमें वाल्मीकि, कालिदास,भवभूति इत्यादि संस्कृत के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। पिछले खेवे के कवियों ने मुक्तक रचना में तो अधिकतर प्राकृतिक वस्तुओं का अलग-अलग उल्लेख केवल उद्दीपन की दृष्टि से किया है। प्रबंध रचना में थोड़ा-बहुत संश्लिष्ट चित्रण किया है, वह प्रकृति की विशेष रूपविभूति को लेकर ही।
प्रकृति के साधारण असाधारण सब प्रकार के रूपों को रखने वाले वर्णन हमें वाल्मीकि कालिदास भवभूमि इत्यादि संस्कृत के प्राचीन कवियों में देखने को मिलते हैं।
निम्नलिखित जानकारी का अध्ययन कीजिए और नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
अनंत रूपों में प्रकृति हमारे सामने आती है-कहीं मधुर, सुसज्जित या सुंदर रूप में; कही रूखे, बेडौल या कर्कश रूप मे: कहीं भव्य, विशाल या विचित्र रूप में, और कहीं उम्र में; कराल या भयंकर रूप में सच्चे कवि का हृदय उसके उन सब रूपों में लीन होता है, क्योंकि उसके अनुराग का कारण अपना खास सुखभोग नहीं, बल्कि चिरसाहचर्य द्वारा प्रतिष्ठित वासना है। जो केवल प्रफुल्ल प्रसून प्रसाद के सौरभ-संचार, मकरंदलोलुप मुधकर के गुंजार, कोकिलकूजित निकुंज और शीतल सुखस्पर्श समीर की ही चर्चा किया करते हैं, वे विषयी या भोगलिप्सु हैं। इसी प्रकार जो केवल मुक्ताभासहिम बिंदुमंडित मरकताभ शाद्वलजाल, अत्यंत विशाल गिरिशिखर से गिरते जलप्रपात की गंभीर गति से उठी हुई सीकरनीहारिका के बीच विविधवर्ण स्फुरण की विशालता, भव्यता और विचित्रता में ही अपने हृदय के लिए कुछ पाते हैं वे तमाशबीन हैं, सच्चे भावुक या सह्रदय नहीं। प्रकृति के साधारण, असाधारण सब प्रकार के रूपों को रखने वाले वर्णन हमें वाल्मीकि, कालिदास,भवभूति इत्यादि संस्कृत के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। पिछले खेवे के कवियों ने मुक्तक रचना में तो अधिकतर प्राकृतिक वस्तुओं का अलग-अलग उल्लेख केवल उद्दीपन की दृष्टि से किया है। प्रबंध रचना में थोड़ा-बहुत संश्लिष्ट चित्रण किया है, वह प्रकृति की विशेष रूपविभूति को लेकर ही।
उपरोक्त गद्यांश के लिए उचित शीर्षक कवि और प्रकृति है।
निम्नलिखित जानकारी का अध्ययन कीजिए और नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
भारतीय दर्शन सिखाता है कि जीवन का एक आशय और लक्ष्य है, आशय की खोज हमारा दायित्व है, और अंत में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेना हमारा विशेषाधिकार है। इस प्रकार दर्शन जो कि आशय को उद्घाटित करने की कोशिश करता है और जहाँ तक उसे इसमें सफलता मिलती है, वह इस लक्ष्य तक अग्रसर होने की प्रक्रिया है। कुल मिलाकर आखिर यह लक्ष्य क्या है? इस अर्थ में यथार्थ की प्राप्ति वह है जिसमें पा लेना केवल जानना नहीं है, बल्कि उसी का अंश हो जाना है। इस उपलब्यि में बाधा क्या है? बाधाएँ कई हैं, पर इनमें प्रमुख है-अज्ञान। अशिक्षित आत्मा नहीं है, यहाँ तक कि यथार्थ संसार भी नहीं है, यह दर्शन ही है जो उसे शिक्षित करता है, और अपनी शिक्षा से उसे उस अज्ञान से मुक्ति दिलाता है, जो यथार्थ दर्शन नहीं होने देता। इस प्रकार एक दार्शनिक होना एक बौद्धिक अनुगमन करना नहीं है, बल्कि एक शक्तिप्रद अनुशासन पर चलना है, क्योकि सत्य की खोज में लगे हुए सही दार्शनिक को अपने जीवन को इस प्रकार आचरित करना पड़ता है ताकि उस यथार्थ से एकाकार हो जाए जिसे वह खोज रहा है। वास्तव में यही जीवन का एक मात्र सही मार्ग है और सभी दार्शनिकों को इसका पालन करना होता है, और दार्शनिक ही नहीं, बल्कि सभी मनुष्यों को, क्योकि सभी मनुष्यों के दायित्व और नियति एक ही है।
उपरोक्त गद्यांश के आधार पर बताइए कि यथार्थ की प्राप्ति में प्रमुख बाधा क्या है?
उपरोक्त गद्यांश में यथार्थ की प्राप्ति में प्रमुख बाधा अज्ञान बताया गया है।
निम्नलिखित जानकारी का अध्ययन कीजिए और नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
भारतीय दर्शन सिखाता है कि जीवन का एक आशय और लक्ष्य है, आशय की खोज हमारा दायित्व है, और अंत में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेना हमारा विशेषाधिकार है। इस प्रकार दर्शन जो कि आशय को उद्घाटित करने की कोशिश करता है और जहाँ तक उसे इसमें सफलता मिलती है, वह इस लक्ष्य तक अग्रसर होने की प्रक्रिया है। कुल मिलाकर आखिर यह लक्ष्य क्या है? इस अर्थ में यथार्थ की प्राप्ति वह है जिसमें पा लेना केवल जानना नहीं है, बल्कि उसी का अंश हो जाना है। इस उपलब्यि में बाधा क्या है? बाधाएँ कई हैं, पर इनमें प्रमुख है-अज्ञान। अशिक्षित आत्मा नहीं है, यहाँ तक कि यथार्थ संसार भी नहीं है, यह दर्शन ही है जो उसे शिक्षित करता है, और अपनी शिक्षा से उसे उस अज्ञान से मुक्ति दिलाता है, जो यथार्थ दर्शन नहीं होने देता। इस प्रकार एक दार्शनिक होना एक बौद्धिक अनुगमन करना नहीं है, बल्कि एक शक्तिप्रद अनुशासन पर चलना है, क्योकि सत्य की खोज में लगे हुए सही दार्शनिक को अपने जीवन को इस प्रकार आचरित करना पड़ता है ताकि उस यथार्थ से एकाकार हो जाए जिसे वह खोज रहा है। वास्तव में यही जीवन का एक मात्र सही मार्ग है और सभी दार्शनिकों को इसका पालन करना होता है, और दार्शनिक ही नहीं, बल्कि सभी मनुष्यों को, क्योकि सभी मनुष्यों के दायित्व और नियति एक ही है।
उपरोक्त गद्यांश का संक्षेपण कीजिए।
उपरोक्त गद्यांश का संक्षेपण इस प्रकार है- भारतीय दर्शन जीवन के लक्ष्य की खोज करके उसे पाने की प्रक्रिया भी बताता है। लक्ष्य को पा लेना उसे केवल जानना नही है, बल्कि उसका अंश हो जाना है, इस उपलब्धि में प्रमुख बाधा है अज्ञान, जिसे दर्शन ही दूर कर सकता है। इस प्रकार दार्शनिक को स्वयं अनुशासित होना पड़ता है ताकि वह यथार्थ से एकाकार हो जाए। इसी नाते अनुशासित आचरण का पालन सभी मनुष्यों को करना होता है।
निम्नलिखित जानकारी का अध्ययन कीजिए और नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
भारतीय दर्शन सिखाता है कि जीवन का एक आशय और लक्ष्य है, आशय की खोज हमारा दायित्व है, और अंत में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेना हमारा विशेषाधिकार है। इस प्रकार दर्शन जो कि आशय को उद्घाटित करने की कोशिश करता है और जहाँ तक उसे इसमें सफलता मिलती है, वह इस लक्ष्य तक अग्रसर होने की प्रक्रिया है। कुल मिलाकर आखिर यह लक्ष्य क्या है? इस अर्थ में यथार्थ की प्राप्ति वह है जिसमें पा लेना केवल जानना नहीं है, बल्कि उसी का अंश हो जाना है। इस उपलब्यि में बाधा क्या है? बाधाएँ कई हैं, पर इनमें प्रमुख है-अज्ञान। अशिक्षित आत्मा नहीं है, यहाँ तक कि यथार्थ संसार भी नहीं है, यह दर्शन ही है जो उसे शिक्षित करता है, और अपनी शिक्षा से उसे उस अज्ञान से मुक्ति दिलाता है, जो यथार्थ दर्शन नहीं होने देता। इस प्रकार एक दार्शनिक होना एक बौद्धिक अनुगमन करना नहीं है, बल्कि एक शक्तिप्रद अनुशासन पर चलना है, क्योकि सत्य की खोज में लगे हुए सही दार्शनिक को अपने जीवन को इस प्रकार आचरित करना पड़ता है ताकि उस यथार्थ से एकाकार हो जाए जिसे वह खोज रहा है। वास्तव में यही जीवन का एक मात्र सही मार्ग है और सभी दार्शनिकों को इसका पालन करना होता है, और दार्शनिक ही नहीं, बल्कि सभी मनुष्यों को, क्योकि सभी मनुष्यों के दायित्व और नियति एक ही है।
उपरोक्त गद्यांश का समुचित शीर्षक चुनिए।
उपरोक्त गद्यांश का समुचित शीर्षक होगा- भारतीय दर्शन और जीवन।
निम्नलिखित जानकारी का अध्ययन कीजिए और नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें।
शीलयुक्त व्यवहार मनुष्य की प्रकृति और व्यक्तित्व को उद्घाटित करता है। उत्तम, प्रशंसनीय और पवित्र आचरण ही शील है। शीलयुक्त व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर है। इससे मनुष्य की ख्याति बढ़ती है। शीलवान व्यक्ति सबका हृदय जीत लेता है। शीलयुक्त व्यवहार से कटुता दूर भागती है। इससे आशंका और संदेह की स्थितियाँ कभी उत्पन्न नहीं होती। इससे ऐसे सुखद वातावरण का सृजन होता है, जिसमें सभी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। शीलवान व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों को सुप्रभावित करता है। शील इतना प्रभुत्वपूर्ण होता है कि किसी कार्य के बिगड़ने की नौबत नहीं आती। अधिकारी-अधीनस्थ, शिक्षक-शिक्षार्थी, छोटों-बड़ों आदि सभी के लिए शीलयुक्त व्यवहार समान रूप से आवश्यक है। शिक्षार्थी में यदि शील का अभाव है तो वह अपने शिक्षक से वांछित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। शीलवान अधिकारी या कर्मचारी में आत्मविश्वास की वृद्धि स्वतः ही होने लगती है और साथ ही उनके व्यक्तित्व में शालीनता आ जाती है। इस अमूल्य गुण की उपस्थिति में अधिकारी वर्ग और अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच, शिक्षकगण और विद्यार्थियों के बीच तथा शासक और शासित के बीच मधुर और प्रगाढ़ संबंध स्थापित होते हैं और प्रत्येक वर्ग की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। इस गुण के माध्यम से छोटे-से -छोटा व्यक्ति बड़ों की सहानुभूति अर्जित कर लेता है। शील कोई दुर्लभ और दैवी गुण नहीं है। इस गुण को अर्जित किया जा सकता है। पारिवारिक संस्कार इस गुण को विकसित और विस्तारित करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं।
गद्यांश में कौन-सा शब्द 'दुष्प्रभावित' का विलोम है?
गद्यांश में सुप्रभावित शब्द 'दुष्प्रभावित' का विलोम है।
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